“सवा लाख से एक लडाऊं” गुरुगोविन्द सिंह जी का सबसे लोकप्रिय सवैया रहा है.व्यवहारिक तौर पर इसके अर्थ पर जायेंगे तो ये एक “रूपक” के सिवाय कुछ भी नहीं लगेगा । मेजर बाना सिंह,कुलदीप सिंह चांदीपुरी,हवलदार ईशर सिंह जैसे अनेक ऐसे नाम हैं जो गुरु गोविन्द सिंह जी के इस प्रतीकात्मक काव्य को सच्चाई में बदलते रहे हैं । 12 सितम्बर 1897 की वो “सरागढ़ी की जंग” को कौन भुला सकता है,कैसे 21 सैनिक अकेले ही हजारों की तादात में आये अफगानी पश्तूनों से भिड़ गए । जी हाँ ! ये कोई मिथक नहीं है बल्कि असंभव सी दिखने वाली नितांत सत्य घटना है । ये सब कैसे हुआ,आज हम इतिहास की इस सबसे महान जंग पर प्रकाश डालेंगे ताकि हमें एक बार फिर अपने ‘सिख’ वीरों के पराक्रम पर गर्व महसूस हो सके
1)’सरागढ़ी’ पश्चिमोत्तर भाग में स्थित हिंदुकुश पर्वतमाला की समाना श्रृंखला पर स्थित एक छोटा सा गाँव है,लगभग 118 पहले हुई एक जंग में सिख सैनिकों के अतुल्य पराक्रम ने इस गाँव को दुनिया के नक़्शे में ‘महान भूमि’ के रूप में चिन्हित कर दिया ।
2)ब्रिटिश शासनकाल में 36 सिख रेजीमेंट जो की ‘वीरता का पर्याय’ मानी जाती थी,’सरगढ़ी’ चौकी पर तैनात थी.यह चौकी रणनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण गुलिस्तान और लाकहार्ट के किले के बीच में स्थित था ।
3)यह चौकी इन दोनों किलों के बीच एक कम्यूनिकेशन नेटवर्क का काम करती थी । ब्रिटिश इंटेलीजेंस स्थानीय कबीलायी विद्रोहियों की बगावत को भाँप न सके । सितम्बर 1897 में आफरीदी और अफगानों ने हाँथ मिला लिया ।
4)अगस्त के अंतिम हफ्ते से 11 सितम्बर के बीच इन विद्रोहियों ने असंगठित रूप से किले पर दर्जनों हमले किये । परन्तु सिख वीरों ने उनके सारे आक्रमण विफल कर दिए ।
5)12 सितम्बर की अलसुबह करीब 12 से 15 हजार पश्तूनों ने लाकहार्ट के किले को चारों और से घेर लिया । हमले की शुरुआत होते ही,सिग्नल इंचार्ज ‘गुरुमुख सिंह’ ने Lt.col जॉन होफ्टन को हेलोग्राफ पर यथास्थिती का ब्योरा दिया । परन्तु किले तक तुरंत सहायता पहुँचाना काफी मुश्किल था ।
6)मदद की उम्मीद लगभग टूट चुकी थी,लांस नायक लाभ सिंह और भगवान सिंह ने गोली चलाना शुरू कर दिया.हजारों की संख्या में आये पश्तूनों की गोली का पहला शिकार बनें भगवान सिंह,जो की मेन गेट में दुश्मन को रोक रहे थे ।
7)उधर सिखों के हौंसले से,पश्तूनों के कैम्प में हडकंप मचा था,उन्हें ऐसा लगा मानो कोई बड़ी सेना अभी भी किले के अन्दर है.उन्होंने किले पर कब्जा करने के लिए दीवाल तोड़ने की दो असफल कोशिशें की ।
8)हवलदार इशर सिंह ने नेतृत्व संभालते हुए,अपनी टोली के साथ “जो बोले सो निहाल,सत श्री अकाल” का नारा लगाया और दुश्मन पर झपट पड़े हाथापाई मे 20 से अधिक पठानों को मौत के घात उतार दिया ।
9)गुरमुख सिंह ने अंग्रेज अधिकारी से कहा,”हम भले ही संख्या में कम हो रहे हैं,पर अब हमारी हाँथों में 2-2 बंदूकें हो गयी हैं हम आख़िरी साँस तक लड़ेंगे”,इतना कह कर वह भी जंग में कूद पड़े ।
10)पश्तूनों से लड़ते-लड़ते सुबह से रात हो गयी,और अंततोगत्वा सभी 21 रणबाँकुरे शहीद हो गए । जी ते जी उन्होंने उस विशाल फ़ौज के आगे आत्मसमर्पण नहीं किया ।
11)इस जंग में उन 21 वीरों ने करीब 500 से 600 पश्तूनों का शिकार किया ।पठान बुरी तरह थक गए थे और तय रणनीति से भटक गए थे जिसके कारण वे ब्रिटिश आर्मी अगले दो दिन में ही हार गए,पर यह सब उन 21 सिख योद्धाओं के बलिदान के परिणामस्वरूप ही हो सका ।
12)इस ‘महान’ और असंभव लगने वाली जंग की चर्चा समूचे विश्व में हुई लन्दन स्थित हाउस ऑफ़ कॉमंस ने एकस्वरता से इन सिपाहियों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की ।
13)मरणोपरांत सभी 36 रेजीमेन्ट के सभी 21 शहीद जवानों को परमवीर चक्र के समतुल्य (विक्टोरिया क्रॉस) से सम्मानित किया । ब्रिटेन में आज भी ‘सरागढ़ी की जंग’ को शान से याद किया जाता है।
14)भारतीय सेना की आधुनिक सिख रेजीमेंट 12 सितम्बर को हर साल सरागढ़ी दिवस मनाते हैं,यह दिन उत्सव का होता है जिसमे पराक्रम और बलिदान की मिठास लिए हुए जश्न होता है।
15)भारत और ब्रिटेन की सेना ने 2010 में ‘सरागढ़ी की जंग’ की स्मरण में एक सरागढ़ी चैलेन्ज कप नाम की ‘पोलो’ स्पर्धा आयोजित की,यह हर साल आयोजित करने की भी योजना है।
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