Thursday, 9 April 2015

1965 का भारत-पाक युद्ध -पृष्ठभूमि,कारण व युद्ध / ताशकंद समझौता = प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु और अनुत्तरित यक्ष प्रश्न.....



भारत-पाकिस्तान के बीच 1965 की लड़ाई उन मुठभेड़ों रूपी घोषित युद्ध का नाम है जो दोनो के बीच अप्रैल 1965 से सितम्बर 1965 के बीच हुआ था , इसे कश्मीर के दूसरे युद्ध के नाम से भी जाना जाता है ,,भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू और कश्मीर राज्य पर अधिकार के लिये भारत के बंटवारे के समय से ही विवाद चल रहा है।
1947-48 में भारत व पाकिस्तान का प्रथम युद्ध भी कश्मीर के लिये ही हुआ था , इस लड़ाई की शुरूआत पाकिस्तान ने अपने सैनिको व कबाईलियों को घुसपैठियो के रूप मे भेज कर इस उम्मीद मे की थी कि कश्मीर की जनता भारत के खिलाफ विद्रोह कर देगी ,, इस अभियान का नाम पाकिस्तान ने युद्धभियान जिब्राल्टर रखा था ।
पांच महिने तक चलने वाले इस युद्ध मे दोनो पक्षो के हजारो लोग मारे गये । इस युद्ध का अंत संयुक्त राष्ट्र के द्वारा युद्ध विराम की घोषणा के साथ हुआ और ताशकंद मे दोनो पक्षो मे समझौता हुआ ।
इस लड़ाई का अधिकांश हिस्सा दोनो पक्षो की थल सेना ने लड़ा और कारगिल युद्ध के पहले कश्मीर के विषय मे कभी इतना बड़ा सैनिक जमावड़ा नही हुआ था ,, इस युद्ध मे पैदल और बख्तरबंद टुकड़ीयों ने वायुसेना की मदद से अनेक अभियानो मे हिस्सा लिया , दोनो पक्षो के बीच हुए अनेक युद्धो की तरह इस युद्ध की अनेक जानकारियां दोनो पक्षो ने सार्वजनिक नही की ।
5 अगस्त 1965 को 26000 से 30000 के बीच पाकिस्तानी सैनिको ने कश्मीर की स्थानीय आबादी की वेषभूषा मे नियंत्रण रेखा को पार कर भारतीय कश्मीर मे प्रवेश कर लिया और भारतीय सेना ने स्थानीय आबादी से इसकी सूचना पाकर 15 अगस्त को नियंत्रण रेखा को पार किया शुरुआत में भारतीय सेना को अच्छी सफलता मिली उसने तोपखाने की मदद से तीन महत्वपूर्ण पहाड़ी ठिकानो पर कब्जा जमा लिया ,,, पाकिस्तान ने टिथवाल उरी और पुंछ क्षेत्रों में महत्वपूर्ण बढत कर ली पर 18 अगस्त तक पाकिस्तानी अभियान की ताकत में काफी कमी आ गयी थी भारतीय अतिरिक्त टुकड़ियां लाने में सफल हो गये भारत ने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर मे 8 किलोमीटर अंदर घुस कर हाजी पीर दर्रे पर कब्जा कर लिया ।
इस कब्जे से पाकिस्तान सकते में आ गया अभियान जिब्राल्टर के घुसपठिये सनिकों का रास्ता भारतीयों के कब्जे में आ गया था और अभियान विफल हो गया यही नहीं पाकिस्तान की कमान को लगने लगा कि पाकिस्तानी कश्मीर का महत्वपूर्ण शहर मुजफ्फराबाद अब भारतीयों के कब्जे मे जाने ही वाला है सो मुजफ्फराबाद पर दबाव कम करने के लिये पाकिस्तान ने एक नया अभियान ग्रैंड स्लैम शुरू किया था !
1 सितम्बर 1965 को पाकिस्तान ने ग्रैंड स्लैम नामक एक अभियान के तहत सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण शहर अखनूर पर कब्जे के लिये आक्रमण कर दिया ,, इस अभियान का उद्देश्य कश्मीर घाटी का शेष भारत से संपर्क तोडना था ताकि उसकी रसद और संचार व्यवस्था भंग कर दी जाय उस समय पाकिस्तान के इस भारी आक्रमण के लिये भारत तैयार नही था और पाकिस्तान को भारी संख्या मे सैनिकों और बेहतर किस्म के टैंकों का लाभ मिल रहा था अतैव शुरूआत में ही भारत को भारी क्षति उठानी पड़ी इस पर भारतीय सेना ने हवाई हमले का उपयोग किया इसके जवाब मे पाकिस्तान ने पंजाब और श्रीनगर के हवाई ठिकानों पर हमला कर दिया तब युद्ध के इस चरण में पाकिस्तान अत्यधिक बेहतर स्थिती मे था और इस अप्रत्याशित हमले से भारतीय खेमे मे घबराहट फैल गयी थी ,, अखनूर के पाकिस्तानी सेना के हाथ मे जाने से भारत के लिये कश्मीर घाटी मे हार का खतरा पैदा हो सकता था ..!!
तब ग्रैंड स्लैम के विफल होने की सिर्फ दो वजहें ही थी सबसे पहली और बड़ी वजह यह थी कि पाकिस्तान की सैनिक कमान ने जीत के मुहाने पर अपने सैनिक कमांडर को बदल दिया ऐसे में पाकिस्तानी सेना को आगे बढने मे एक दिन की देरी हो गयी और उन महत्वपूर्ण 24 घंटो में ही भारत को अखनूर की रक्षा के लिये अतिरिक्त सैनिक और सामान लाने का मौका मिल गया खुद भारतीय सेना के स्थानीय कमांडर भौचक्के थे कि पाकिस्तान इतनी आसान जीत क्यों छोड़ रहा है ??
एक दिन की देरी के बावजूद भारत के पश्चिमी कमान के सेना प्रमुख यह जानते थे कि पाकिस्तान बहुत बेहतर स्थिती में है और उसको रोकने के लिये उन्होनें यह प्रस्ताव तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल चौधरी को दिया कि पंजाब सीमा मे एक नया मोर्चा खोल कर लाहौर पर हमला कर दिया जाय लेकिन जनरल चौधरी इस बात से सहमत नही थे किंतु तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने उनकी बात अनसुनी कर इस हमले का आदेश दे दिया था !
6 सितंबर 1965 को भारत पाकिस्तान के बीच की वास्तविक सीमा रेखा इच्छोगिल नहर को पार करके भारतीय सेना पाकिस्तान में घुस गई। तेजी से आक्रमण करती हुई भारतीय थल सेना का कारवां बढ़ता रहा और भारतीय सेना लाहौर हवाई अड्डे के नजदीक पहुंच गई। यहां एक रोचक वाकया हो गया अमेरिका ने भारत से अपील की कि कुछ समय के लिए युद्धविराम किया जाए ताकि वो अपने नागरिकों को लाहौर से बाहर निकाल सके तब भारतीय सेना ने अमेरिका की बात मान ली और इस वजह से भारत को नुकसान भी हुआ,, इसी युद्ध विराम के समय में पाकिस्तान ने भारत में खेमकरण पर हमला कर उस पर कब्जा कर लिया था ..!!
8 दिसंबर को पाकिस्तान ने मुनाबाओ पर हमला कर दिया दरअसल पाकिस्तान लाहौर में हमला करने को तैयार भारतीय सेना का ध्यान बंटाना चाहता था इसलिये मुनाबाओ में पाकिस्तान को रोकने के लिए मराठा रेजिमेंट भेजी गई,, मराठा सैनिकों ने जमकर पाक का मुकाबला किया लेकिन रसद की कमी और कम सैनिक होने के चलते मराठा सैनिक शहीद हो गए फलस्वरूप 10 दिसंबर को पाकिस्तान ने मुनाबाओ पर कब्जा कर लिया और खेमकरण पर कब्जे के बाद पाकिस्तान अमृतसर पर कब्जा करना चाहता था लेकिन अपने देश में भारतीय सेना की बढ़त देखकर उसे कदम रोकने पड़े तब तक 12 दिसंबर को जंग में कुछ ठहराव आया दोनों ही देशों की सेना जीते हुए हिस्से पर ध्यान दे रही थी,,,
इस युद्ध में भारत तथा पाक ने बहुत कुछ खोया, इस जंग में हमारी सेना के क़रीब 3000 और पाकिस्तान के क़रीब 3800 जवान मारे गए थे !
भारत ने युद्ध में पाकिस्तान के 710 वर्ग किलोमीटर इलाके और पाकिस्तान ने भारत के 210 वर्ग किलोमीटर इलाके को अपने कब्जे में ले लिया था,, भारत ने पाकिस्तान के जिन इलाकों पर जीत हासिल की, ‌उनमें सियालकोट, लाहौर और कश्मीर के कुछ अति उपजाऊ क्षेत्र भी शामिल थे दूसरी तरफ पाकिस्तान ने भारत के छंब और सिंध जैसे रेतीले इलाकों पर कब्जा किया,, क्षेत्रफल के हिसाब से देखा जाए तो युद्ध के इस चरण में भारत फायदे में था और पाकिस्तान नुकसान में, किंतु आखिरकार वह समय आया जब संयुक्त राष्ट्र की पहल पर दोनों देश युद्ध विराम को राजी हुए।
सोवियत यूनियन के ताशकंद में भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री अयूब ख़ाँ के बीच 11जनवरी 1966 को समझौता हुआ,, दोनों ने एक घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करके अपने विवादित मुद्दों को बातचीत से हल करने का भरोसा दिलाया और यह तय किया कि 25 फरवरी तक दोनों देश नियंत्रण रेखा अपनी सेनाएं हटा लेंगे और दोनों देश इस बात पर राजी हुए कि 5 अगस्त 1965 से पहले की स्थिति का पालन करेंगे और जीती हुई जमीन से कब्जा छोड़ देंगे किंतु संधि के कुछ ही घंटों बाद शास्त्री जी की रहस्यमय तरीके से मौत हो गई..!!
अब इस कोंण पर कहा जाये तो मित्रों इस समझौतेवादी भारतीय राजनीति में एक पेंचदार काला अध्याय ‘ताशकंद समझौता’ नामक भी है जो भारत और पाकिस्तान के बीच 11 जनवरी, 1966 को हुआ एक ‘शांति’ समझौता था।
इस समझौते के अनुसार यह तय हुआ कि भारत और पाकिस्तान अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे और अपने झगड़ों को शान्तिपूर्ण ढंग से तय करेंगे।
यह समझौता भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री तथा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री अयूब ख़ाँ की लम्बी वार्ता के उपरान्त 11 जनवरी, 1966 ई. को ताशकंद, तत्कालीन सोवियत संघ में हुआ था !
ताशकंद समझौता संयुक्त रूप से प्रकाशित हुआ था। ‘ताशकंद सम्मेलन’ सोवियत संघ के प्रधानमंत्री द्वारा आयोजित किया गया था।
इसमें कहा गया था कि-
1.) भारत और पाकिस्तान शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे और अपने-अपने झगड़ों को शान्तिपूर्ण ढंग से तय करेंगे।
दोनों देश 25 फ़रवरी, 1966 तक अपनी सेनाएँ 5 अगस्त, 1965 की सीमा रेखा पर पीछे हटा लेंगे।
2.) इन दोनों देशों के बीच आपसी हित के मामलों में शिखर वार्ताएँ तथा अन्य स्तरों पर वार्ताएँ जारी रहेंगी।
3.) भारत और पाकिस्तान के बीच सम्बन्ध एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने पर आधारित होंगे।
4.) दोनों देशों के बीच राजनयिक सम्बन्ध फिर से स्थापित कर दिये जाएँगे।
5.) एक-दूसरे के बीच में प्रचार के कार्य को फिर से सुचारू कर दिया जाएगा।
6.) आर्थिक एवं व्यापारिक सम्बन्धों तथा संचार सम्बन्धों की फिर से स्थापना तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान फिर से शुरू करने पर विचार किया जाएगा।
7.) ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाएँगी कि लोगों का निर्गमन बंद हो।
8.) शरणार्थियों की समस्याओं तथा अवैध प्रवासी प्रश्न पर विचार-विमर्श जारी रखा जाएगा तथा हाल के संघर्ष में ज़ब्त की गई एक दूसरे की सम्पत्ति को लौटाने के प्रश्न पर विचार किया जाएगा।
इस समझौते के क्रियान्वयन के फलस्वरूप दोनों पक्षों की सेनाएँ उस सीमा रेखा पर वापस लौट गईं, जहाँ पर वे युद्ध के पूर्व में तैनात थी परन्तु इस घोषणा से भारत-पाकिस्तान के दीर्घकालीन सम्बन्धों पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा,, फिर भी ताशकंद घोषणा इस कारण से याद रखी जाएगी कि इस पर हस्ताक्षर करने के कुछ ही घंटों बाद भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमय व संदिग्ध परिस्थितयों में दुखद मृत्यु हो गई थी जिसके कारण आजतक अज्ञात ही हैं और तत्कालीन भारत सरकार की आजतक चुप्पी भी संदिग्ध ही है..!!
लालबहादुर शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री का कहना था कि जब लालबहादुर शास्त्री की लाश को उन्होंने देखा था तो लालबहादुर शास्त्री की छाती, पेट और पीठ पर नीले निशान थे जिन्हें देखकर साफ लग रहा था कि उन्हें जहर दिया गया है. लालबहादुर शास्त्री की पत्नी ललिता शास्त्री का भी यही कहना था कि लालबहादुर शास्त्री की मौत संदिग्ध परिस्थितियों में हुई थी.
लाल बहादुर शास्त्री की पत्नी ललिता शास्त्री ने आरोप लगाया कि उनकी मौत हृदय गति रुकने से नहीें हुई बल्कि उन्हें जहर देकर मारा गया है।
उनकी पत्नी के इस आरोप को उस समय सामने आये तथ्यों से बल भी मिला, जिन्हें बाद में दबा या छुपा दिया गया। हो सकता है कि उन्हें हार्ट अटैक हुआ हो क्योंकि 1959 में उन्हें इससे संबंधित समस्या हुई थी लेकिन उनके सचिव सीपी श्रीवास्तव के अनुसार उस वक्त शास्त्री जी को किसी तरह की तकलीफ नहीं हुई थी जिससे लगे कि उन्हें कुछ देर में हार्ट अटैक हो सकता है।
मौत के तुरंत बाद शास्त्री जी का शरीर नीला पड़ गया था तब वहां पहुंचे दो ब्रिटिश डाक्टरों ने अपनी रिपोर्ट में टिप्पणी की थी कि ‘स्वाभाविक मौत में भी कई बार शरीर का रंग नीला हो जाता है पर उनके शरीर का रंग उससे ज्यादा गहरा है। लेकिन बिना पोस्टमार्टम और टॉक्सीकोलॉजिकल जांच के ये कहना संभव नहीं है कि मौत कैसे हुई है।’
आश्चर्यजनक रूप से शास्त्री जी की मौत की दो अलग-अलग जांच रिपोर्ट पेश की गयीं। उनके निजी चिकित्सक डॉ चुग ने जो डेथ सर्टिफिकेट बनाया उसमें 6 सोवियत यूनियन के डाक्टरों ने दस्तखत किये थे ये सभी डाक्टर उनकी मृत्यु के बाद आये थे।
इसके कुछ ही दिनों बाद सोवियत संघ ने शास्त्री जी की एक और मेडिकल रिपोर्ट जारी की। जिसमें छह के बजाए आठ डॉक्टरों के हस्ताक्षर थे।
इस घटना को चार दशक से अधिक समय बीत चुका है पर सच्चाई आज तक सामने नहीं आ सकी है। उनकी मौत हृदय गति रुकने से हुई या जहर से इसकी अधिकारिक रिपोर्ट कभी नहीं आई।
अब न भारत सरकार शास्त्री जी की मौत के बारे में कभी बात करती है न ही कहीं ताशकंद समझौते के बारे में चर्चा होती है। लाल बहादुर शास्त्री की मौत आज तक अनसुलझी पहेली बनी हुई है और सरकार ने इसे कभी न सुलझने देने का बहाना भी खोज लिया है।
पिछले दिनों ‘सी आईएज आई ऑन साउथ एशिया’ के लेखक अनुज धर ने सूचना के अधिकार के तहत वर्तमान कांग्रेसनीत यूपीऐ सरकार से लालबहादुर शास्त्री की मौत से जुड़ी जानकारी चाही थी इस पर प्रधानमंत्री कार्यालय ने यह कह कर सूचना सार्वजनिक न करने की छूट मांगी कि अगर उनकी मौत से जुडे दस्तावेज सार्वजनिक किये गये तो विदेशी संबंधों को नुकसान पहुंचेगा साथ ही देश में गड़बड़ी और संसदीय विशेषाधिकार का हनन हो सकता है…!!
प्रधानमंत्री कार्यालय की इस दलील से परे देश की जनता आज भी अपने इस लोकप्रिय नेता की मौत का सच जानना चाहती है।
लाल बहादुर शास्त्री के पुत्र सुनील शास्त्री और भांजे सिद्धार्थनाथ सिंह के साथ उनके परिजन भी चाहते हैं कि उनकी मौत के बारे व्याप्त संदेह को स्पष्ट कर दिया जाये पर अब तक किसी भी सरकार ने यह नहीं चाहा हालांकि सरकार ने यह स्वीकार किया कि सोवियत संघ में शास्त्री जी का कोई पोस्टमार्टम नहीं कराया गया था लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री के निजी चिकित्सक और रूस के कुछ डॉक्टरों की ओर से की गई चिकित्सीय जांच की एक रिपोर्ट उसके पास है पर वह इसे देश हित के कारण सार्वजनिक नहीं कर सकती।
अब यक्ष प्रश्न यह हैं कि देशहित क्या है और शास्त्री जी की मृत्यु की परिस्थिति सहित उनके मौत की वजह सार्वजनिक कर देने से देशहित एवं संसदीय विशेषाधिकारों का हनन कैसे हो ही सकता है और देश में गडबडी फैलने के अंदेशे का मूल आधार ही क्या है…??
ऐसा क्या राज है ताशकंद समझौते की आड़ में तथा शास्त्री जी की मृत्यु की रिपोर्ट में जो सरकारें जाहिर करने से घबराती हैं और देश को ही देशहित व संसदीय विशेषाधिकारों के हनन के डर का पाठ पढाती हैं…..??

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