गांधी-नेहरु द्वारा दिये गये घाव, जो आज भी रिस रहे हैं...
जो व्यक्ति लाखों-करोड़ो लोगों का विश्वास जीत लेता है, वही जननेता कहलाता है। जननेता की नीति और उनके निर्णय इतिहास की इबारत बदल देते है या ऐसे घाव देते है, जो वर्षों तक रिसते रहते है। उसकी पीड़ा के दंश से आने वाली कई पीढि़यां छट-पटाती रहती है।
गांधी जन नेता थे। उनकी नीतियां और निर्णय ने भारतीय इतिहास को बहुत अधिक प्रभावित किया है। उनके एक निर्णय -सुभाष बोस के प्रति उपेक्षा और पंडित नेहरु से अत्यधिक अनुराग, ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दिशा बदल दी। सुभाष को गांधी से दूर किसने किया, यह विवाद का विषय हो सकता है, किन्तु यह सच है कि सुभाष जैसा विलक्षण व्यक्तित्व यदि गांधी के साथ रहता, तो हमे अंग्रेजी दासता से मुक्ति पाने के लिए 1947 तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। अंग्रेज अपनी कुटिल नीति से मुस्लिम लींग जैसे संगठन का धरातल तैयार नहीं कर पाते। इस संगठन को पोषित और प्रोत्साहित नहीं कर पाते। नकली नेता उपहार में दे कर इसका महत्व नहीं बढ़ा पाते। पाकिस्तान नहीं बनता। इस नासुर की पीड़ा से आज़ादी के बाद की चार पीढि़या नहीं कराहती।
सुभाष के पास अंग्रेजों की कुटिल चालों को असफल करने का नैतिक और बौद्धिक बल था, जो नेहरु के पास नहीं था। वे जिन्ना को शांत करने की क्षमता रखते थे, जो नेहरु नहीं कर पाये, अलबता जिन्ना को आवेश बढ़ाने में पंडित जी ने कोई कसर बाकी नहीं रखीं। दरअसल, पंडित जी अनजाने में अंग्रेजों की कुटिल चालों के सहयोगी बन गये थे। अपनी अतृप्त महत्वाकंाक्षा की पूर्ति के लिए उन्हें सुभाष का विराट व्यक्तित्व बाधक नज़र आ रहा था, इसलिए वे उन्हें गांधी से दूर करने में सफल रहे। परन्तु उनकी महत्वाकांक्षा राष्ट्र को बहुत महंगी पड़ी।
सुभाष के मन में ब्रिटिश साम्राज्य की शीघ्र विदाई और पूर्ण स्वराज्य की तड़फ थी। वे अंग्रेजो की किसी नीति, निर्णय और शर्त को मानने के पक्षधर नहीं थे। स्वतंत्र भारत में उच्च पद पाने की अभिलाषा भी उनके मन में नहीं थीं। किन्तु पंडि़त जी को किसी भी कीमत पर स्वतंत्र भारत का शीर्षस्त राजपुरुष बनना था। अपनी अतृप्त महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से निकटता बढ़ाई। स्वराज्य पाने की कीमत पर उन्होंने अंग्रेजों की सारी शर्तें स्वीकार कर ली। नेहरु की नीति और नीयत पर गांधी का मौन राष्ट्र के लिए बहुत घातक साबित हुआ। हम एक जीती हुई बाजी हार गये।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद पराजित हो कर सिर झुकाये देश से विदा नहीं हुआ, वरन गर्वित भाव से सिर ऊपर उठाये देश से बाहर निकला था। कुटिल नीतियों की सफलता पर उसके मन में हर्ष था। पूरा देश जल रहा था। लाशों के ढ़ेर और करुण मानवीय चीख-पुकार के बीच एक राष्ट्रीय ध्वज के बजाय दो ध्वज फहराये जा रहे थे। दो राष्ट्रगान गाये जा रहे थे। दरअसल सता का हस्तांतरण नहीं हुआ था, सत्ता का बंटवारा हुआ था। साम्राज्यवाद की जीत हुुई थी और भारतीय राष्ट्रवाद की हार हुई थी।
आखिर पंडित नेहरु स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गये। गांधी को राष्ट्रपिता और महात्मा अलंकार से अलंकृत किया गया। जिन्ना पाकिस्तान के कायदे आजम बन गये। कांग्रेस के नेत्ताओं को सत्ता सुख भोगने का सौभाग्य मिल गया। किन्तु स्वतंत्रता संग्राम के महान योद्धा को युद्ध अपराधी घोषित किया गया। जिस योद्धा ने “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा ” का नारा दिया था, राष्ट्र उनके दर्शन के लिए तरस गया। मित्र राष्ट्रो के लिए युद्ध अपराधी थे, किन्तु भारत माता के तो वे वीर सपूत थे। पंडि़त जी ने उनकी खोज खबर लेने की कोई कोशिश नहीं की। गांधी को सुभाष की उपेक्षा करने का कभी पछतावा नहीं हुआ। उनके मुहं से एक महान देश भक्त के त्याग और बलिदान पर दो शब्द नहीं निकले। अंततः नेता जी भारतीय इतिहास की एक किंवदंती बन कर रह गये।
गांधी प्रबल विरोध के बावजदू भी सुभाष कांग्रेस अध्यक्ष चुने गये थे। उनके मन में यदि स्वतंत्रता मिलने पर राजसुख भोगने की इच्छा बलवत होती तो कांग्रेस में ही रहते। अपना प्रभाव बढ़ाते और आगे बढते, किन्तु उन्होंने गांधी की नाराजगी की वजह से न केवल कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ा, वरन देश छोड कर चले गये। उनका मार्ग अत्यधिक कठिन, दुर्गम व कंटकाकीर्ण था, किन्तु उस महान योद्धा के मन में भारत को साम्राज्यवाद से मुक्त कराने की उत्कट जिजीविषा थी।
गांधी जन नेता थे। जनता ने उन पर भरोसा किया था, जिसे उन्होंने तोड़ दिया था। नेहरु इस पूरे एतिहासिक नाट्यमंचन के खल पात्र थे, किन्तु वे स्वतंत्र भारत के प्रथम राजपुरुष बन गये। गांधी ने उनका विरोध नहीं किया। जबकि उस समय कांग्रेस के पास कई योग्य नेता थे, जिनका कद पंडि़त जी के समकक्ष था या ऊंचा था, किन्तु गांधी की कृपा उन पर ही थी। पंडि़त जी ने औपनिवेशिक युग के कानून, प्रशासनिक व्यवस्था और अंग्रेजियत को ज्यों का त्यों आत्मसात कर लिया। फलतः भारत आज़ाद हो गया, पर नौकरशाही का गुलाम बन गया। लोकतंत्र में लोकशाही लोकसेवक के बजाय हाकमशाही की ही भूमिका निभाती रही। भ्रष्टाचार का बिजोरोहण नेहरु युग में ही हुआ, जिसका विकराल रुप आज हमे दिखाई दे रहा है।
अंग्रेजो ने भारत की सियासतों को यह अधिकार दिया था कि वे अपने स्वविवेक से भारत या पाकिस्तान में अपनी सियासत का विलय कर सकती है। यह अंग्रेजो की शरारतपूर्ण चाल थी, जिसे स्वीकार करना हमारे नेताओं की भारी भूल थी। सरदार वल्लभ भाई पटेल की विलक्षण प्रतिभा के कारण स्वतंत्र भारत की पहली बड़ी समस्या सुलझा दी गयी, किन्तु कश्मीर की रियासत की समस्या पंडित जी की गलत नीति के कारण उलझ गयी, जो आज भी फांस की तरह हमारे गले में चुभ रही है।
पंडि़त जी की कश्मीर नीति के दुष्परिणाम स्वतंत्र भारत की चार पीढि़यों को भोगने पड़ रहे है। यदि कश्मीर समस्या का अन्तरराष्ट्रीयकरण नहीं होता, तो आधा कश्मीर पाकिस्तान के पास नहीं जाता। पाक अधिकृत कश्मीर का एक बड़ा भाग चीन को दान में नहीं मिलता। पाकिस्तान अन्तरराष्ट्रीय जगत के समक्ष पूरा कश्मीर अपना होने का दावा नहीं करता। पाकिस्तान की राजनीति में कश्मीर ऐसा मसला बन गया है कि जो भी नेता अपनी सियासत चमकाना चाहता है, वह सब से पहले कश्मीर का राग छेड़ता है। पाकिस्तानी सेना और उसकी चरमपंथी इकाईयों को कश्मीर के बहाने भारत में आतंकवाद फैलाने का बहाना मिल गया हैं। आज पाकिस्तान की पूरी राजनीति कश्मीर पर केन्द्रीत हो गयी है। यदि पंडि़त जी कश्मीर समस्या को नहीं उलझाते, तो पाकिस्तान अब तक टूट कर बिखर जाता या उसका भारत में विलय हो जाता।
गांधी ने हमे स्वराज्य दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, किन्तु ब्रिटिश साम्राज्य, जिन्ना और पंडि़त नेहरु की नीति और नीयत को नहीं समझने के कारण हमे पूर्ण स्वराजय की जगह खंडि़त स्वराज्य मिला। गांधी ने पंडि़त नेहरु को बहुत अधिक महत्व दिया, उसके दुखद परिणाम राष्ट्र को आज भी भोगने पड़ रहे है। नेहरु गांधी परिवार ने साठ वर्ष तक भारत पर शासन किया। आज भारत जिन प्रमुख समस्याओं से जूझ रहा है, उनमें से नब्बे प्रतिशत समस्याएं इसी परिवार की देन है।
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