Tuesday 14 April 2015

नक्सल अभियान : कब तक मरते रहेंगे जवान?

अचानक नक्सली हमले में जवानों के मरने की खबर मिलते ही माहौल दुखभरा हो जाता है। सोचिए जरा उन परिवार के लोगों पर क्या गुजररती होगी, जिनके घर का बेटा, भाई या फिर पति इस हमले का शिकार होता होगा। घर परिवार की आजीविका चलाने के लिए सीआरपीएफ में नौकरी करने वाले जवानों के साथ अगर ऐसा ही होता रहा तो आने वाला समय बेहद दुखदायी होगा। अभी समय है, इसके लिए जिम्मेदार लोगों को निर्णायक फैसला लेना चाहिए। देश के कुछ राज्यों में नक्सल प्रभावित इलाके हैं। उन इलाकों से नक्सलियों का खात्मा करने के लिए केन्द्र और राज्य की सरकारें कुछ न कुछ कदम उठाती रहती हैं। 

आज हम बात केवल छत्तीसगढ़ राज्य की करेंगे। छत्तीसगढ़ की बस्तर संस्कृति दुनिया में मशहूर है। पर चिंता की बात है कि यही इलाका नक्सल प्रभावित भी है। वर्ष 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ था। आंकड़ों पर नजर डाले तो राज्य के गठन के बाद से अब तक हुए नक्सली हमलों में 1050 जवान शहीद हो चुके हैं। शहीद जवानों में 595 छत्तीसगढ़ पुलिस व सहायक बल और 405 केन्द्रीय बलों के जांबाज हैं। छत्तीसगढ़ के रहने वाले 368 (जिला पुलिस बल के 243 एवं छत्तीसगढ़ सशस्त्र बल, एसटीएफ सहित 125) जवान शहीद हुए। वहीं 327 शहादत सीआरपीएफ के जवानों ने दी है। विशेष पुलिस अधिकारी भी पीछे नहीं रहे, इनकी संख्या भी 194 है। किसी एक घटना में सर्वाधिक सुरक्षाकर्मी ताड़मेटला की घटना में सीआरपीएफ के 75 एवं छत्तीसगढ़ पुलिस के एक जवान शहीद हुए। मार्च 2007 में रानीबोदली में विशेष पुलिस अधिकारी सहित 55 पुलिसकर्मी शहीद हुए थे। पिछले करीब 14 वर्षों में 39 ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिसमें 5 या उससे अधिक सुरक्षाकर्मी शहीद हुए हैं। वर्ष 2007 में सबसे ज्यादा 200 सुरक्षाकर्मी मारे गए। वर्ष 2009 में 125 और वर्ष 2010 में 170 जवान शहीद हुए। सितम्बर 2005 में गंगालूर रोड पर एंटी-लैंडमाइन वाहन में ब्लास्ट की घटना हुई थी। इस घटना में 23 जवान शहीद हुए थे। जुलाई 2007 में एर्राबोर अंतर्गत उरपलमेटा एम्बुश में 23 सुरक्षाकर्मी मारे गए। अगस्त 2007 में ताड़मेटला में मुठभेड़ में थानेदार सहित 12 जवान शहीद हुए। 12 जुलाई 2009 को राजनांदगांव में ब्लास्ट के बाद हुई फायरिंग में एसपी सहित 29 जवान शहीद हुए। नारायणपुर के घौडाई क्षेत्र अंतर्गत कोशलनार में 27 सुरक्षाकर्मी एम्बुश में मारे गए। 6 अप्रैल 2010 को ताड़मेटला में सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद हुए। 11 मार्च 2014 को टाहकवाड़ा में सीआरपीएफ के 16 जवान शहीद हुए। नवंबर 2014 में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के हेलीकॉप्टर पर निशाना साधा था, जिसमें सीआरपीएफ के आईजी एचएस संधू सर्चिंग आॅपरेशन पर निकल रहे थे। इस हमले में संधू के गनमैन को नक्सलियों की गोली लगी थी और सात जवान घायल हो गए थे। 

जब भी नक्सली हमले की वारदात होती है तो जांच रिपोर्ट में एक बात प्रमुखता से सामने आती है कि जवानों की गतिविधि नक्सल युद्ध के स्टैंडर्ड आपरेटिंग प्रोसिजर यानी एसओपी के खिलाफ था। सवाल उठता है कि आखिर बार-बार ऐसा ही क्यों होता है। क्या सीआरपीएफ की टुकड़ी के कमांडर ऐसा किसी लालच में करते हैं या फिर उन्हें संबंधित विषय के बारे में सही ढंग से प्रशिक्षित नहीं किया गया होता। इस बार के हमले में भी यही बात उभरकर सामने आ रही है कि जो कुछ हुआ वह नक्सल युद्ध के स्टैंडर्ड आपरेटिंग प्रोसिजर यानी एसओपी के खिलाफ था। 11 अप्रैल 2014 को घटी घटना के बारे में जो बात उभर कर सामने आयी है, वह यह है कि प्लाटून कमांडर शंकर राव बड़ी सफलता की उम्मीद में भरपूर उत्साह के साथ रात दो बजे ही निकल पड़े थे। शंकर राव की छवि एसटीएफ में एक बेहतरीन कमांडर की थी। वे इस आपरेशन के लिए जिस टीम का नेतृत्व कर रहे थे, उसमें एसटीएफ के 49 जवान तथा 20 सहायक आरक्षक ही थे। बस्तर में नक्सल विरोधी कार्रवाईयों के जानकार मानते हैं कि जिस इलाके में एसटीएफ की यह टुकड़ी आपरेशन के लिए जा रही थी, वह इलाका नक्सल गढ़ है। आज भी इस इलाके में फोर्स अपना कब्जा स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रही है। इस इलाके में कई बड़ी वारदातें हो चुकी हैं। इस इलाके में सुरक्षा बलों का कोई भी मूवमेंट इतनी कम संख्या में नहीं होता है। कम से कम 400-500 जवान जब तक न हों, फोर्स किसी भी तरह के आपरेशन के लिए नहीं निकलती है। इस इलाके में आपरेशन से पूर्व वरिष्ठ अधिकारियों की निगरानी में ठोस योजना बनाई जाती है, उसके बाद ही फोर्स का मूवमेंट होता है। लेकिन ऐसा क्यों नहीं किया गया, यह सवाल कौन पूछेगा? यह माना जा रहा है कि शंकर राव तक नक्सलियों ने इस तरह की कोई खबर भेजी, जिससे उन्हें लगा कि सारी तैयारी करने में देर हो जाएगी और वे अपनी प्लाटून को लेकर ही रात दो बजे निकल पड़े। जो नक्सल युद्ध के स्टैंडर्ड आपरेटिंग प्रोसिजर यानी एसओपी के खिलाफ था। इस छोटी सी गलती ने सात जवानों की जान ले ली, जिसमें खुद प्लाटून कमांडर भी शामिल हैं। इतना ही नहीं नक्सल अभियान को सफल बनाने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनी खुफिया इकाईयों की कार्यप्रणाली भी संदेह के दायरे में है या फिर वह सही ढंग से काम नहीं कर रही हैं। सुकमा में हुए इस नक्सली हमले में तकरीबन 400 से अधिक नक्सलियों ने योजना बनाकर सीआरपीएफ की टुकड़ी पर हमला बोला था। सवाल उठता है कि नक्सलियों की इतनी भारी संख्या इलाके में मौजूद है और खुफिया इकाई को इस बात की भनक तक नहीं है। हर बार घटना के बाद बस एक ही जुमला सुनने को मिलता है। बस कोई शहीद जवानों की बहादुरी को सलाम करता है तो कोई घायल जवानों के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना करता है। नक्सल अभियान में मोर्चा संभाले जवानों को इलाज तक की समुचित व्यवस्था नहीं मिल पाती। 14 अप्रैल 2014 को नक्सली हमले में सीआरपीएफ का जवान जितेन्द्र शर्मा घायल हो गया था, तबसे वह कोमा में है। रायपुर के अस्पताल में उसका इलाज चल रहा है। मलेरिया से पीड़ित जवानों को भी इलाज के लिए दर बदर की ठोकर खानी पड़ती है। आखिर यह सब कब तक ऐसे ही होता रहेगा।

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