Monday, 31 July 2017

व्यक्तित्व का धनी एकलव्य – एक प्रेरणा Eklavya - an inspiration .... in hindi




एकलव्य- कहानी एक, शिक्षाएं अनेक

महाभारतकाल में एकलव्य नाम का एक निर्धन बालक हुआ है, जो इतने अभाव में रहता था कि एक दिन अपनी मां से दूध मांगने पर उसे खरिया का सफेद घोल मिला और इसी को दूध मानकर उसने पिया था। वह बालक धनुर्विघा के प्रति गहरी रूचि रखता था। उसके जीवन का उद्देश्य था- एक महान तीरंदाज बनना। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने महान आचार्य से धनुर्विद्या की शिक्षा लेने का अपना लक्ष्य बना लिया और वह गुरू द्रोणाचार्य के आश्रम में पहुंचा. लेकिन उन्होंने शिक्षा देने से इनकार कर दिया, क्योंकि वह शूद्र-पुत्र था । यह जानकर एकलव्य बिल्कुल निराश नहीं हुआ. बल्कि उसने अपना आत्मबल बढ़ाया और अपनी गहरी रूचि के अनुकूल दुनिया का महान् धनुर्धारी बनने का मन में दृढ़-संकल्प करके वह जंगल में चला गया। उसने मिट्टी से द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाई, उन्हें अपना गुरू मानकर प्रणाम किया और फिर धनुर्विद्या के अभ्यास में एकाग्र-मन से जुट गया। सभी बाधाओं को पार करते हुए वह कुछ समय बाद इस विद्या में इतना निपुण हो गया कि एक दिन उसने एक साथ अपने सात बाणों से एक कुत्ते का मुंह बांध दिया। वह कुत्ता अर्जुन का था. जो गुरू द्रोणाचार्य का शिष्य था। अर्जुन एकलव्य की कौशल-चातुर्य, बुद्धि एवं निपुणता को देखकर स्तब्ध रह गया। उसने तुरंत आश्रम में जाकर अपने गुरू को यह आंखों देखा हाल सुना दिया। द्रोणाचार्य ने तत्काल उस बालक से मिलकर जब उसके गुरूदेव का नाम पूछा तो उसने उन्हीं की स्व-निर्मित मूर्ति उन्हें दिखाकर कहा, ‘आप ही मेरे गुरूदेव हैं।‘ उसी समय गुरू द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरू-दक्षिणा के रूप में उसके सीधे हाथ का अंगूठा मांगा और उसने सहर्ष ही अपना अंगूठा काटकर उन्हें भेंट कर दिया।
दोस्तों, यह प्रसंग हमारे जीवन को सफल बनाने में बड़े महत्व का है. क्योंकि इसमें व्यक्त्वि विकास के सभी आवश्यक तत्व स्पष्ट हो जाते हैं, जो इस प्रकार से हैं –
  1. हम सकारात्मक सोच के साथ अपना जीवन-लक्ष्य तय करें। एकलव्य का जीवन-लक्ष्य था-सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी बनना।
  1. लक्ष्य अपनी गहरी रूचि के अनुरूप हो ताकि हमें आगे चलकर निराश न होना पड़े।
चूंकी एकलव्य भील जाति का था, उसकी शुरू से इच्छा तीरंदाजी में थी। इस इच्छा शक्ति को उसने सुदृढ़ किया था।
  1. ‘लक्ष्य’ की ओर बढ़ने से पहले हम इच्छा शक्ति में दृढ़ता लाएं, अन्यथा कार्य के बीच अवरोधों के आ जाने से हमारी इच्छा-शक्ति प्रभावित हो सकती है। शुद्र-पुत्र होने के कारण एकलव्य को गुरू द्रोणाचार्य ने अपना शिष्य बनाने से इंकार कर दिया था, इसके बावजूद उसे श्रेष्ठ धनुधारी बनने के लिए महान् आचार्य से शिक्षा प्राप्त करने की उसकी प्रबल इच्छा थी। वह तिरस्कृत हो जाने पर भी विचलित नहीं हुआ और उनकी मूर्ति मिट्टी से बनाकर उनको आदर्श गुरू मान लिया था।
  1. इच्छा-शक्ति में दृढ़ता लाने के लिए मन में यह संकल्प लेना है कि हमें निर्धारित लक्ष्य पूरा करना है, क्योंकि मन की चंचलता के कारण संकल्प लिए बिना हम अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच पाते।
एकलव्य ने समर्पण की भावना से अपने संकल्प को कायम किया और इससे वह अपने सात बाणों से अर्जुन के कुत्ते का मुंह बांधने में सफल हुआ।
  1. हम ‘हीनता की भावना’ कभी मन में न लाएं। एकलव्य ने अपने साहस, उत्साह और आत्मविश्वास के बल पर अकेले ही संघर्ष करने का दृढ़ निश्चय किया था और अकेला जंगल में रहकर धनुर्विघा के अभ्यास में लगा रहा।
  1. हम स्वयं को कभी अभावग्रस्त न समझें।
एकलव्य ने अपनी आंखों के सामने केवल अपने लक्ष्य को रखा था, जिससे वह अपनी में निरंतर इजाफा करता रहा। इससे वह स्वयं को अभावग्रस्त नहीं समझता और संघर्ष में लगा रहता था।
  1. हम अपने जीवन को व्यवस्थित रखें। लक्ष्य को पूरा करने में संयम, धैर्य और अनुशासन की जरूरत होती है।
एकलव्य को तो अनुशासन के पालन में अपने सीधे हाथ का अंगूठा गुरू द्रोणाचार्य के चरणों में भेंट करना पड़ा था।
  1. लक्ष्य की ओर बढ़ जाने पर हम संघर्ष से प्रेम करें और नैतिक मूल्यों का सम्मान करते हुए अपने कार्यों में लगन के साथ लगे रहें।
एकलव्य अपनी पूरी लगन के साथ संघर्ष करते हुए अकेला प्रेक्टिस में लगा रहा और अपने चरित्र के बल पर गुरू-दक्षिणा में अपना अंगूठा उनके चरणों में समर्पित कर उनका सम्मान किया। इससे बढ़कर और क्या नैतिकता का सम्मान हो सकता था?

Satish Pandey

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