अंतिम परीक्षा
शिक्षा ग्रहण करने के लिए श्रीनिवास जी का आश्रम बहुत ही प्रसिद्ध था, घने जंगल में उनका यह सुन्दर आश्रम था जिसकी ख्याति बहुत दूर-दूर तक फैली हुई थी. श्रीनिवास जी का शांत-स्नेह स्वभाव, उनकी विद्वता, तपश्चर्या, त्यागमय जीवन, सदाचरण के कारण ही बहुत दूर-दूर से कई विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने के लिए उनके आश्रम में आते थे. अनुशासन और स्वावलंबन उनके आश्रम का आधार था. आश्रम से कुछ ही दूर पर एक नदी थी, आचार्य सहित सभी विद्यार्थी उस नदी में ही स्नान करने जाया करते थे.. आश्रम का यह नियम था कि प्रातः काल सूर्योदय के पहले ही सभी को अपना नित्य कर्म पूरा कर लेना है. एक ओर जहाँ प्रति वर्ष नये-नये विद्यार्थियों को आश्रम में प्रवेश दिया जाता था तो वहीँ दूसरी ओर जिनकी शिक्षा पूरी हो जाती उन्हें सस्नेह विदाई दी जाती थी..
होली का त्यौहार निकट था, जिन विद्यार्थियों की अंतिम परीक्षा हो चुकी उन्हें अब घर की याद सताने लगी थी किन्तु बिना आचार्य जी की आज्ञा के वे कैसे जा सकते थे? किसी तरह एक लड़के ने बहुत हिम्मत करके आचार्य जी से विनम्र निवेदन किया “ आचार्य जी, हमने पूरे 10 वर्ष आश्रम में रहकर आपसे शिक्षा ग्रहण की है, अब शिक्षा भी पूरी हो गई है, और इन दस वर्षों में हम एक बार भी घर नहीं जा पाए हैं, क्या आप हमे कृपया घर जाने की अनुमति प्रदान कर सकते हैं? जिससे हम आने वाले होली का त्यौहार अपने घरों में मना सकें!”
आचार्य उनकी ओर देखकर मुस्कुराते हुए बोले- “हाँ! यह बात आप सबने पहले क्यों नहीं बताई? आपकी शिक्षाएं पूर्ण हो चुकी हैं, तो मैं आपको रोक नहीं सकता.. आज शाम को ही आप सब घर जा सकते हैं.” ऐसा कहते हुए आचार्य जी भ्रमण करने के निकल गए… सभी शिष्यों की खुशी का ठिकाना न था वो सभी मस्ती में झूमने लगे और उन सबने घर जाने के उद्देश्य से अपना सारा सामान समेटना शुरू कर दिया. शाम को एक अंतिम नाव नदी के उस पार जाने के लिए निकलती थी, उसी नाव से घर जाने के लिए सभी उतावले हो गए, प्रस्थान की पूरी तैयारी करके वे सभी अब आचार्य जी के आने की प्रतीक्षा करने लगे.. जब आचार्य जी भ्रमण करके लौटे तो सभी शिष्यों ने उन्हें प्रणाम किया और नदी की ओर चलने लगे…
नित्य के रास्ते से ही सभी शिष्य नदी की ओर जाने लगे, क्योंकि सूर्यास्त हो रहा था और उन सबके पैर बहुत गति से आगे चले जा रहे थे, सबके मन में बस यही चल रहा था कि यदि आखिरी नाव भी नदी से छूट गई तो उन्हें कल सुबह ही जाना पड़ेगा.. चलते हुए उन सबने देखा कि रास्ते में बहुत सारे कांटे बिखरे हुए थे और इस रास्ते से आगे बढ़ना संभव नहीं था और देरी होने के कारण सभी चिंतित हो उठे! लेकिन उन में से एक शिष्य जिसका नाम सुब्रत था, वह कुछ अलग ही सोच रहा था..
उसने सब मित्रों से आग्रह करते हुए कहा-“ मित्रों! हमे इन काँटों को रास्ते से हटा देना चाहिए. कल मुह-अँधेरे में आचार्य जी और अन्य सहपाठी नदी पर स्नान करने के लिए इसी रास्ते से आयेंगे और अँधेरे के कारण शायद वे इन काँटों को न देख पायें. यदि हमने इन काँटों को न हटाया तो उन्हें ये काँटे चुभेंगे! इसलिए पहले हमे इस मार्ग पर से ये सभी कांटे हटाने चाहिए.”
किन्तु सुब्रत का कथन सुनने तक का किसी को भी सब्र नहीं था, वे सभी तो घर जाने के लिए बड़े उतावले होते जा रहे थे. वे उस रास्ते को छोड़ खेतों से रास्ता तय कर नदी की ओर आगे बढ़ने लगे. एक ओर जहाँ सभी खेतों से फसल रौंदते हुए दौड़ते जा रहे थे तो वहीं अकेला सुब्रत रास्तों पर से कांटे हटा रहा था, जिससे प्रातः काल इस रास्ते से आने वाले आचार्य जी और अन्य शिष्यों को वे न चुभे!
सुब्रत के अलावा बाकि सभी शिष्य नदी किनारे पहुँच चुके थे, उन्होंने जब नाव को अपनी आँखों के सामने पाया तो वे बड़े प्रसन्न हुए किन्तु अचानक ही उन सबने वहाँ अपने आचार्य जी को देखा, उन्हें देख वे सब अचम्भे में पड़ गए.. आचार्य ने उनकी राह रोक ली और उनके चेहरे पर नाराजगी के भाव स्पष्ट झलक रहे थे.
आचार्य जी ने कहा-“ प्रिय शिष्यों सिर्फ किताबी ज्ञान को रटकर और परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने मात्र से ही शिक्षा पूरी नहीं हो जाती. हम जिस रास्ते से गुजर रहे हैं उस रास्ते के कांटे भी हमे ही हटाने चाहिए. एक साधारण सा शिष्टाचार भी यदि आपके आचरण में नहीं आया इससे तात्पर्य है कि अभी आपकी शिक्षा पूर्ण नहीं हुई है… यही तो आपकी अंतिम परीक्षा थी और इसे उत्तीर्ण करने से पहले ही आप घर लौटने को उतावले हो गए थे. अंतिम परीक्षा लेने के लिए ही मैंने रास्तों पर कांटे बिखेर दिए थे. अकेला सुब्रत ही परीक्षा उत्तीर्ण कर पाया, उसे आने में विलम्ब होगी करके ही मैंने यह नाव रोकने की सुचना दी थी. आज वह अकेला ही घर जा पायेगा.. आचार्य जी का यह कथन पूरा होते तक सुब्रत वहाँ पहुँच चूका था, सुब्रत की प्रशंसा करते हुए उनकी आँखें भर आईं.. उसे नाव में बिठाते हुए आचार्य जी ने कहा- “प्रिय सुब्रत! जीवन में न केवल अपने बल्कि के मार्ग के कांटे दूर करने वाला ही श्रेष्ठ होता है और तुमने हमारे मार्ग के काँटे हटाकर अपना श्रेष्ठत्व सिद्ध किया.. मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा.” आचार्य जी के वचन सुनकर सुब्रत की आँखों में खुशी के आंसू झलक उठे और वह नाव से घर की ओर प्रस्थान करने लगा….
अन्य शिष्य सुब्रत का कहना न मानने से पश्चाताप करने लगे और सभी शिष्य आचार्य जी के साथ आश्रम की ओर लौट आये..
मित्रों इस प्रेरणादायक हिंदी कहानी से हमे बहुत-सी बातें सीखने को मिलती है:-
१. “विद्या धर्मेंण शोभते” अपने प्रति, परिवार और समाज के प्रति,राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य का बोध होना साधारण शिक्षा से बहुत ही महत्वपूर्ण है.
२. यह अनमोल जिंदगी हमे स्वार्थ ढंग से जीने के लिए नहीं मिली है, हमारा यह कर्तव्य है कि हम अपने अलावा दूसरों के जिंदगी में आने वाली बाधाओं को दूर करने का भी प्रयास करें.
३. शिष्टाचार की बातों को पढकर, सुनकर हमे उसे असल जिंदगी में भी उतारना चाहिए शायद ईश्वर भी कहीं हमारा अंतिम परीक्षा ले और इसी शिष्टाचार एवं अच्छे आदर्शों के कारण हम उसमे उत्तीर्ण हो जाएँ, और यक़ीनन शिष्टाचार के बदौलत हम अपनी जिंदगी के हर एक परीक्षा में जरूर उत्तीर्ण होंगे.
धन्यवाद!
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