हम सर्वप्रथम गणतंत्र और राजतंत्र में प्रचलित आय के और उसके स्वरुप की चर्चा करेंगे। आय न सिर्फ व्यक्ति संस्था के लिए अनिवार्य है बल्कि राजा, सामन्त के लिए भी उतना ही आवश्यक है। प्राचीन काल में व्यक्ति की आवश्यकताएँ पूरी हो जाती थीं लेकिन राज्य के लिए आय एक अभिन्न अंग था।
आधुनिक सन्दर्भ में जहां कल्याणकारी राज्यों की संकल्पना साकार रुप ले रही है उसमें आय की अनिवार्यता और भी बढ़ जाती है। प्राचीन काल में राज्य अपने आन्तरिक और बाह्य सुरक्षा के लिए भी कर्मचारियों की श्रृंखला रहती थी। शासन संचालन के लिए जगह जगह कोर्ट कचहरियों की स्थापना आवश्यक थी। उनकी सुरक्षा के लिए दुर्ग निर्माण तथा जनकल्याण के लिए सीमित स्तर पर ही कुआँ, बावली, सराय, व्यापार के लिए पथ निर्माण, घाटों की सुरक्षा के लिए रक्षकों की प्रतिनियुक्ति इत्यदि आवश्यक थी। इसके अतिरिक्त दुर्भिक्ष (यानी अकाल), बाढ़, महामारी इत्यदि की समस्या से भी न्यूनाधिक रुप में राज्यों को जूझना पड़ता था। साथ ही सबसे बडी आशंका आन्तरिक विद्रोह और बाह्य आक्रमण से रहा करता था। उसके लिए पर्याप्त शक्ति का संगठन और सशक्तिकरण की आवश्यकता महसूस होती थी। इन सब के लिए आय की आवश्यकता थी, चाहे वह आयु धातु, मुद्रा या वस्तु संचयन के ही रुप में क्यों न हो।
भारत के प्राचीन ग्रंथों में राजाओं के द्वारा उगाहे जाने वाले कर एवं राजस्व प्रद्धति का इस रुप में व्याख्या की गई है कि वह उसकी शासक सम्बन्धी सेवाओं का वेतन था। उनके विचारों की पुष्टि महाभारत अर्थशास्त्र शुक्रनीतिसार इत्यदि ग्रंथों से भी होती है। शासन सम्बन्धी सेवाओं के वेतन की अवधारणा प्राय: प्राचीन धर्म ग्रंथों में प्रभूत रुप से विद्यमान है। उसमें राजस्व संग्रहण के मानदण्ड और मर्यादाओं की भी पुष्कल चर्चा आई है जिसकी विस्तृत चर्चा आगे की जायेगी। यहां राज्य के आय की आवश्यक बिन्दु पर ही विचार किया गया है। निर्विवाद रुप से आय किसी व्यवस्था का अनिवार्य अंग है, अन्यथा किसी भी व्यवस्था को अग्रसारित किया जाता असंभव है।
प्राचीन काल में प्रचलित राजस्व का विवरण वेदों में उपलब्ध है। वैदिक युग में कृषि एवं पशु सम्पत्ति से ग्रामीणों के द्वारा एक निर्धारित राशि बलि के रुप में चुकाई जाती थी। ऋग्वेद में बलि शब्द अनेक बार प्रयुक्त हुआ है जो राजा को कर या ईश्वर को आहुति देने के रुप में प्रयुक्त है। वही स्मृतियों में अनिवार्य भुगतान बन गया है। ऋग्वेद में उल्लेख है कि स्थिर साधन से स्थिर राजा को हम विचारपूर्वक प्राप्त करते हैं, परमेश्वर तेरी प्रजाओं को केवल तेरी ही प्रजाएं और तेरे लिए बलिहृत देने वाली किया है। वेद में उल्लिखित यह प्रसंग आज के युग में कितना समीचीन लगता है इस पर हम विचार कर सकते हैं। आधुनिक सरकार के स्थयित्व के लिए राज्य के पास आय के पर्याप्त स्त्रोत का होना आवश्यक है, तभी सरकार जनता के कल्याण के लिए कार्य कर सकती है। विकास की योजनाओं को लागू करने के लिए राज्य के पास पर्याप्त कोष का होना आवश्यक है। जनता से लिया हुआ कर जनता के लिए उसकी सुरक्षा उसके कल्याण के लिए होता है। इस प्रकार के विचार का उल्लेख वेदों के उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट होता है।
मैत्ती ने बलि को राजा का हक, जनता एवं विजित राजा की ओर से देय माना है। बलि चारु की तरह एक भेंट है जैसे आज भी ग्रामों में सामान्य धार्मिक उत्सवों पर मक्खन, अन्न, चावल, फल-फूल इत्यादि का चढ़ावा जाता है। इस तरह बलि एक धार्मिक उपकर जो राज्य को दिया जाने वाले अंशदान है। लेकिन वेद की मान्यता से भिन्न मिलिन्दपन्ज ने बलि को आपात्कालीन कर माना है। इस प्रकार बलि जनता के द्वारा राजा को दिया जाने वाला हर प्रकार का भुगतान था।
मैत्ती ने बलि को राजा का हक, जनता एवं विजित राजा की ओर से देय माना है। बलि चारु की तरह एक भेंट है जैसे आज भी ग्रामों में सामान्य धार्मिक उत्सवों पर मक्खन, अन्न, चावल, फल-फूल इत्यादि का चढ़ावा जाता है। इस तरह बलि एक धार्मिक उपकर जो राज्य को दिया जाने वाले अंशदान है। लेकिन वेद की मान्यता से भिन्न मिलिन्दपन्ज ने बलि को आपात्कालीन कर माना है। इस प्रकार बलि जनता के द्वारा राजा को दिया जाने वाला हर प्रकार का भुगतान था।
वेदों के परवर्ती और स्मृतियों के पूर्ववर्ती धर्म सूत्रकारों ने भी धर्मसूत्रों में राजस्व के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किए हैं। धर्मसूत्र में वर्णित राजस्व व्यवस्था के स्थापित बीज स्वरुप व्यवस्था मानी जा सकती है। गौतम सूत्रकार ने कृषिजन्य उपज पशु हिरण्य विक्रयपण्य पर राजा की रक्षा करने के कारण प्रावधान किया है। कृषकों से प्राप्त राशि को बलि तथा विक्रय वस्तु से प्राप्त कर की राशि को शुल्क कहा है। वशिष्ट धर्मसूत्रकार ने भी राजा से अपनी सम्पति का आठवां भाग राजा को देना न्यायोचित माना है।
उसी तरह से स्मृतियों ने भी राजस्व और कर के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किए हैं। स्मृतियों में मुख्यत: मनु याज्ञवल्क्य विष्णु नारद वशिष्ठ तथा पराशर ने न्यूनाधिक रुप में समान विचारधारा व्यक्त किये हैं। विष्णु स्मृतिकार का मत है कि राजा सुकृत एवं दृष्कृत के छठा भाग का अधिकारी है। नारद स्मृतिकार के अनुसार राजा को जो उपज का छठा भाग दिया जाता है वह प्रजा की रक्षा करने का पुरस्कार है। इस सम्बन्ध में मनु ने कहा कि यदि राजा के द्वारा बलि कर शुल्क प्रतिभाग तथा दण्ड प्राप्त करते हुए प्रजा की रक्षा न की जाय तो राजा मृत्युपरांत नरक का अधिकार होता है। इस प्रकार मनुस्मृति ने राजा को उसके कत्र्तव्य के प्रति सचेत किया है।
उसी तरह से स्मृतियों ने भी राजस्व और कर के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किए हैं। स्मृतियों में मुख्यत: मनु याज्ञवल्क्य विष्णु नारद वशिष्ठ तथा पराशर ने न्यूनाधिक रुप में समान विचारधारा व्यक्त किये हैं। विष्णु स्मृतिकार का मत है कि राजा सुकृत एवं दृष्कृत के छठा भाग का अधिकारी है। नारद स्मृतिकार के अनुसार राजा को जो उपज का छठा भाग दिया जाता है वह प्रजा की रक्षा करने का पुरस्कार है। इस सम्बन्ध में मनु ने कहा कि यदि राजा के द्वारा बलि कर शुल्क प्रतिभाग तथा दण्ड प्राप्त करते हुए प्रजा की रक्षा न की जाय तो राजा मृत्युपरांत नरक का अधिकार होता है। इस प्रकार मनुस्मृति ने राजा को उसके कत्र्तव्य के प्रति सचेत किया है।
मनु, याज्ञवल्क्य, विष्णु एवं गौतम स्मृतिकारों ने इन विचारों ने इन विचारों का समर्थन किया है। मनु ने कहा कि चोरों के द्वारा चुराई गई सम्पत्ति चोरों से लेकर सब वर्णों को दे देना चाहिए। इस धन का प्रयोग वर्जित है तथा जो राजा इसका उपयोग करता है वह चोर के पाप का भागी बनता है। विष्णु ने राजा को अपने कोष से भुगतान कर देने की बाध्यता दी है। विष्णु स्मृति में यह उल्लेख किया गया है कि यदि राजा प्रजा से चुराए गए धन की वापसी करने में असमर्थ पाता है। तो उसे प्रजा को अपने कोष से भुगतान कर देना चाहिए। मनु के अनुसार प्रजा की रक्षा करता हुआ राजा पाप और पुण्य के छठे भाग का अधिकारी होता है। याज्ञवल्क्य स्मृतिकार के अनुसार परिपालित प्रजा के द्वारा उपर्जित पुण्य का छठा भाग का अधिकारी होता है। याज्ञवल्क्य स्मृतिकार के अनुसार परिपालित प्रजा के द्वारा उपार्जित पुण्य का छठा भाग राजा प्राप्त करता है। महाभारत ने भी इस सम्बन्ध में अपने विचारों का प्रतिपादन किया है। षडांग बलिकर अपराधियों से प्राप्तव्य जुर्माना और उनका अपहृत धन आदि जो शास्त्रों के अनुसार प्राप्त हो वह सब वेतन के रुप में राजा को प्राप्त होंगे और वही उसके आय का द्वार या राजकर होगा।
कौटिल्य ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ अर्थशास्त्र में बड़े विस्तार पूर्वक राजकीय आय के स्त्रोतों की चर्चा की है। मौर्यकाल में भू-राजस्व तथा तद्सम्बन्धी अन्य शुल्क ग्रामीणों पर लगाये जाते थे। आगे कौटिल्य ने पिण्डकर की चर्चा की है। पिण्डकर राजकीय कर के रुप में प्राप्त होने वाली वस्तुएं थीं। इसके अतिरिक्त कौटिल्य ने और भी कई प्रकारों के करों की चर्चा की है जो इनके आय के स्त्रोत थे।
1. षड् भाग: छठवें अंश के रूप में प्राप्य राज कर।
2. सेना भक्त : युद्धकाल में राज्यदेश से प्रजाजनों द्वार प्राप्त खाद्य पदार्थ।
3. बलि : करों के अतिरिक्त अन्य उपहार के रुप में प्राप्त धन।
3. बलि : करों के अतिरिक्त अन्य उपहार के रुप में प्राप्त धन।
4. कर : अधीनस्थ राजाओं से मिलने वाला कर।
5. उत्संग : उत्सवादि के अवसर पर भेंट स्वरुप प्राप्त वस्तुए।
6. पाश्र्व : नियत कर से अधिक की वसूली।
7. पारिहीणक : पशुओं द्वारा खेत आदि की हुई हानि के कारण पशु-स्वामी को दिए गए अर्थदण्ड से उपलब्ध धन।
8. औपयानिक : राजा को उपहार में प्राप्त धन।
9. कौष्टयेक : खुदाई से सहसा प्राप्त हुआ धन।
भूमि की मालगुजारी के निर्धारण में पैमाइश का महत्व था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी भूमि के पैमाइश का प्रसंग आया है। जिस तरह से आज भूराजस्व का निर्धारण भूमि के सर्व पर आधारित है उसी प्रकार प्राचीन काल में भी पैमाइश के द्वारा ही भूमि की गुणवत्ता जिसके आधार पर भू लगान का निर्धारण किया जाता था वह आज भी प्रासंगिक है। कौटिल्य ने स्पष्ट किया है कि राज्य कर आदि की अधिकारिणी है तो उसे अपने कर्तव्य में न चुकने को निर्देश भी है, अन्यथा प्रजा राजा को धमकी देती थी हम तुम्हारा देश छोड़कर शत्रु राजा के देश में चले जायेंगे। दूसरे शब्दों में प्रजा राजा को धमकी देती थी कि हम तुम्हारे प्रति निष्ठा छोड़कर दूसरे राजा के प्रतिनिष्ठावान होंगे। शुक्र नीति में राजकर के दैविक सिद्धान्त का समर्थन किया गया है। उनका कथन है कि राजा के पालनार्थ ब्रह्मा ने राजा को सेवक बनाया है। प्रजा से निरन्तर उनकी रक्षा एवं पालन करने के प्रतिदान में राजा को राजकर मिलता है।
राजा के कराधान सिद्धांत पर आज के आधुनिक विचारकों ने चिंतन किया है। प्राचीन भारत के विशिष्ट शोधी विद्वान डॉ.के.पी.जायसवाल ने माना है कि राजा को जो कर दिया जाता है वह उसकी शासन सम्बन्धी सेवाओं का भुगतान है। इस सम्बन्ध में डॉ. यतीन्द्र नाथ बोस, डॉ. एन.एन. खेर तथा डॉ. पी.एन. विद्यार्थी ने भी अपने अपने विचार व्यक्त किए हैं। डॉ. यतीन्द्र नाथ बोस ने सामाजिक संविदा सिद्धांत के कारण ही प्रजा राजा को कर दे ऐसा माना है। डॉ संविदा सिद्धांत के कारण ही प्रजा राजा को कर दे ऐसा माना है। डॉ. एन.एन. खेर ने अपना निष्कर्ष देते हुए लिखा है कि राज्य के द्वारा प्रजा की सुरक्षा प्रदान करने के कारण ही कर का भुगतान किया जाता है। उसे सभी विचारकों ने एकमत होकर स्वीकार किया है। इस संबंध में प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था के अन्वेषक डॉ. पी.एन. विद्यार्थी ने स्मृतियों में प्राचीन अर्थव्यवस्था में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि स्मृतिकारों ने एक स्वर से प्रजा की रक्षा के प्रतिदान स्वरूप करधान को स्वीकार किया है तथा कहा है कि राजा को इस लोक में ही नहीं परलोक में भी अपने कर्तव्य की उपेक्षा करने के कारण फल भोगना पड़ता है। प्रजा की सुरक्षा के लिए राजा को उत्तरदायित्व की धारणा को इतने तर्क पूर्ण निष्कर्ष तक पहुँचाया गया है कि विधि ग्रंथों में प्राय: राजा से अपेक्षा की गई कि जिस चोरी की सम्पत्ति का पता लगाने मे वह असफल हो गया है, उसके बराबर सम्पत्ति की प्रतिपूर्ति करें।
संक्षेप में कहने का तात्पर्य यह है कि प्राचीनकाल से ही भारत में राजाओं, संतों और विचारकों ने एक उत्तम और जनोपयोगी कराधान प्रणाली विकसित की हुई थी, जो समय के साथ बदलती भी गई. जब पश्चिमी देश अपने अस्तित्त्व को बनाने और पहचान के लिए संघर्षरत थे, उस समय भारत में कर वसूली की व्यवस्था बन चुकी थी !!
Source: http://desicnn.com/news/tax-collection-system-in-ancient-india-and-its-management-by-kings
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