वेदांत के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरू स्वामी विवेकानंद ने वेदांत को दुनिया में फैलाया. सितम्बर, 1893 में शिकागो में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में उन्होंने सनातन धर्म के बारे में जो व्याख्यान दिया, वह दुनिया को प्रभावित करने वाला था. शिकागो में उनके भाषण से ही सनातन धर्म के प्रति दुनिया की धारणा बदली… कुछ अन्य धर्म के लोग नहीं चाहते थे कि स्वामी जी विश्व धर्म सम्मेलन में सनातन धर्म के बारे में अपने विचार प्रकट करें…
कई धर्म गुरूओं ने चाहा कि स्वामी विवेकानन्द को अपने विचार व्यक्त करने का समय ही न मिले और शायद यही कारण था कि उस सम्मेलन में स्वामी जी का भाषण सबसे अंत में संभव हो पाया… स्वामी विवेकानन्द ने उन्हीं दिनों यह बात बता दी थी: “हर काम करने की तीन अवस्थाएं होती हैं- पहली उपहास की, दूसरी विरोध की और तीसरी अंतिम स्वीकृति की…”
धर्म सम्मेलन में अपने व्याख्यान के पहले स्वामी विवेकानन्द को भारी उपहास झेलना पड़ा और विरोध का भी सामना करना पड़ा, लेकिन अपने विचारों पर दृढ स्वामी विवेकानन्द का यह सिद्धांत केवल स्वामी विवेकानन्द के लिए ही नहीं, बल्कि हर व्यक्ति के जीवन में खरा उतरता है… आप जीवन के किसी भी क्षेत्र में हों, विद्यार्थी हों, व्यापारी हों, राजनेता हों, अथवा नौकरशाह हों, जब भी कोई व्यक्ति लीक से हटकर कोई काम करने के लिए तैयार होता है, तो उसे सबसे पहले उपहास का सामना करना पड़ता है. क्योंकि कोई भी बंधी बंधाई लीक से हटकर कार्य करने को तैयार नहीं होता…
धर्म सम्मेलन में अपने व्याख्यान के पहले स्वामी विवेकानन्द को भारी उपहास झेलना पड़ा और विरोध का भी सामना करना पड़ा, लेकिन अपने विचारों पर दृढ स्वामी विवेकानन्द का यह सिद्धांत केवल स्वामी विवेकानन्द के लिए ही नहीं, बल्कि हर व्यक्ति के जीवन में खरा उतरता है… आप जीवन के किसी भी क्षेत्र में हों, विद्यार्थी हों, व्यापारी हों, राजनेता हों, अथवा नौकरशाह हों, जब भी कोई व्यक्ति लीक से हटकर कोई काम करने के लिए तैयार होता है, तो उसे सबसे पहले उपहास का सामना करना पड़ता है. क्योंकि कोई भी बंधी बंधाई लीक से हटकर कार्य करने को तैयार नहीं होता…
लोगों के मन में धारणा होती है कि नया काम करना बहुत ही कठिन है और कोई भी व्यक्ति यह काम कैसे कर पायेगा? सफलता के लिए कर्म करते रहने की सलाह देते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा: “यह संसार कायरों के लिए नहीं है, पलायन की चेष्टा मत करो, सफलता अथवा असफ़लता की चिंता मत करो, पूर्ण निष्काम संकल्प में अपने को लय कर दो और कर्तव्य करते चलो, समझ लो कि सिद्धि पाने के लिए जन्मी बुद्धि अपने आपको दृढ संकल्प में लय करते सतत कार्यरत रहती है… जीवन संग्राम के मध्य डटे रहो, सुप्तावस्था में अथवा एक गुफा के भीतर तो कोई भी शांत रह सकता है… कर्म के आवर्त और उन्मादन के बीच दृढ रहो और केंद्र तक पहुँचो… और यदि तुम केंद्र पा गये फिर तुम्हें कोई भी विचलित नहीं कर सकता…”
किसी भी काम की शुरुआत करने में अन्य लोगों को लगता है कि कहीं उनके अधिकार तो छीन नहीं जायेंगे, उनके शक्ति स्रोत पर बंधन तो नहीं लग जायेगा? अपनी सत्ता खोने के डर से स्थापित लोग हर नई चीज का विरोध शुरू करते हैं, लेकिन यह कर्म करने वाले पर निर्भर है कि वह दुसरे लोगों को कितना महत्व दें, उनके उपहास और प्रतिकार का क्या जवाब दें… जीवन प्रबन्धन के ये शुरूआती तौर-तरीके स्वामी विवेकानन्द ने व्याप्त किये थे…
यह आज के जमाने में हम सभी के साथ भी हो रहा है और होता है… शिकागो सम्मेलन में उपहास की बात करें तो स्वामी विवेकानन्द का उपहास तरह-तरह से उड़ाया गया… अन्य वक्ताओं को लगता था कि एक गुलाम और अविकसित देश भारत से आया यह युवा साधू दुनिया को क्या ज्ञान की रौशनी देगा, जिसके अपने देश में जातिपात, ऊंच-नीच, भेदभाव और छुआछुत की अनेक सामाजिक बुराइयाँ मौजूद हैं…!
यह आज के जमाने में हम सभी के साथ भी हो रहा है और होता है… शिकागो सम्मेलन में उपहास की बात करें तो स्वामी विवेकानन्द का उपहास तरह-तरह से उड़ाया गया… अन्य वक्ताओं को लगता था कि एक गुलाम और अविकसित देश भारत से आया यह युवा साधू दुनिया को क्या ज्ञान की रौशनी देगा, जिसके अपने देश में जातिपात, ऊंच-नीच, भेदभाव और छुआछुत की अनेक सामाजिक बुराइयाँ मौजूद हैं…!
उन दिनों भारत में अन्य धर्म मतावलम्बियों का प्रभाव भी था और धर्मांतरण का दौर भी.. ऐसे में स्वामी विवेकानन्द के प्रति लोगों का नजरिया अनापेक्षित नहीं था.. एक अन्य धर्म गुरु ने स्वामी विवेकानन्द का मजाक उड़ाते हुए कहा कि यूरोप और अमेरिका के लोग तो दूध से फटे होते हैं और अफ्रीका के लोग कोयले के समान अश्वेत.. ऐसे में भारत से पहुंचे सनातन धर्म के विद्वान किस स्थिति में हैं, क्योंकि न तो श्वेत हैं, न ही अश्वेत…
स्वामी विवेकानन्द ने उन उपहास उड़ाने वाले सज्जन का शालीनता से प्रतिकार किया और कहा: “अगर भोजन पकाते समय चपाती सफ़ेद रह जाए तो कच्ची कही जाती है और अगर काली पड़ जाए तो जली हुई कहलाती है… भोजन की परिपूर्णता उसके समान पकने में है… ऐसे ही विचारों का महत्व भी समान रूप से पकने और परिपूर्णता में है, न कि रंग में, चमड़ी के प्रदर्शन में… असली भाव तो मन का है…”
अपने पहले भाषण में उन्होंने यह बात साफ़ कह दी कि ईश्वर अलग-अलग रूपों में, अलग-अलग मार्गों से होकर गुजरते हैं और सभी को समान रूप से चाहते हैं… इसी तरह इंसान के पास भी ईश्वर के पास पहुँचने के अलग-अलग रास्ते हैं लेकिन वे ईश्वर तक पहुँच सकते हैं… धर्म का कोई भी रूप हो लक्ष्य तो ईश्वर को पाना ही है… उन्होंने स्पष्ट किया कि आध्यात्मिक विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा…
स्वामी विवेकानन्द के इन बातों में जीवन प्रबन्धन का निहितार्थ छुपा है. हम यदि कर्म से विमुख हुए तो हम कहीं के नहीं रहेंगे… उन्होंने एक पराधीन देश के प्रतिनिधि होने के बावजूद अपने विवेक, हौसले और दूरदृष्टि से दुनिया को आगाह कर दिया कि अगर हम अपने लक्ष्य पर अटल रहें, उसके लिए कठोर परिश्रम करें और हमारे मन-मस्तिष्क में अगर विचारों की स्पष्टता हो जीवन में कोई भी लक्ष्य पाना असम्भव नहीं…..
Source: https://www.hamarisafalta.com
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