एक बुढ़िया थी जो बेहद कमजोर और बीमार थी। रहती भी अकेले थी। उसके कंधोँ मेँ दर्द रहता था लेकिन वह इतनी कमजोर थी कि खुद अपनेँ हाथोँ से दवा लगानेँ मेँ असमर्थ थी। कंधोँ पर दवा लगवानेँ के लिये कभी किसी से मिन्नतेँ करती तो कभी से। एक दिन बुढ़िया नेँ पास गुजरनेँ वाले
एक युवक से कहा कि बेटा जरा मेरे कंधोँ पर ये दवा मल दे। भगवान तेरा भला करेगा। युवक नेँ कहा कि अम्मा मेरे हाथोँ की उँगलियोँ मेँ तो खुद दर्द रहता है। मैँ कैसे तेरे कंधोँ की मालिश करूँ?
बुढ़िया नेँ कहा कि बेटा दवा मलनेँ की जरूरत नहीँ। बस इस डिबिया मेँ से थोड़ी सी मरहम अपनी उँगलियोँ से निकालकर मेरे कंधो पर फैला दे। युवक नेँ अनिच्छा से डिबिया मेँ से थोड़ी सी मरहम लेकर उँगलियोँ से बुढ़िया के दोनोँ कंधो पर लगा दी। दवा लगाते ही बुढ़िया की बेचैनी कम होनेँ लगी और वो इसके लिये उस युवक को आशिर्वाद देने लगी। बेटा, भगवान तेरी उँगलियोँ को भी जल्दी ठीक कर दे। बुढ़िया के आशिर्वाद पर युवक अविश्वास से हँस दिया लेकिन साथ ही उसनेँ महसुस किया कि उसकी उँगलियोँ का दर्द गायब सा होता जा रहा है।
वास्तव मेँ बुढ़िया को मरहम लगानेँ के दौरान युवक की उँगलियोँ पर भी कुछ मरहम लग गई थी। यह उस मरहम का ही कमाल था जिससे युवक की उँगलियोँ का दर्द गायब सा होता जा रहा था। अब तो युवक सुबह, दोपहर और शाम तीनोँ वक्त बुढ़ी अम्मा के कंधोँ पर मरहम लगाता और उसकी सेवा करता। कुछ ही दिनोँ मेँ बुढ़िया पुरी तरह से ठीक हो गई और साथ ही युवक के दोनोँ हाथोँ की उँगलियाँ भी दर्दमुक्त होकर ठीक से काम करनेँ लगीँ। तभी तो कहा गया है कि जो दुसरोँ के जख्मोँ पर मरहम लगाता है उसके खुद के जख्मोँ को भरनेँ मेँ देर नहीँ लगती। दुसरोँ की मदद करके हम अपनेँ लिये रोग-मुक्ति, अच्छा स्वास्थ्य और दीर्घायु ही सुनिश्चित करते हैँ।
सीताराम गुप्ता
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