कुछ समय पहले उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक बयान दिया था कि “ताजमहल को भारत की परम्परा और विरासत नहीं माना जा सकता”. जैसी कि उम्मीद थी, योगी आदित्यनाथ के इस बयान को लेकर “सेकुलरिज्म एवं वामपंथ” के नाम पर पाले-पोसे जाते रहे परजीवी तत्काल बाहर निकलकर विरोध प्रकट करेंगे.
इसी बौद्धिक वामपंथी अफीम को चाटकर बड़े हुए, तथा सरकारी खजाने पर साँप की तरह वर्षों तक कुण्डली मारे बैठे तथाकथित इतिहासकार निश्चित रूप से अपने असली स्वरूप में आकर एक भगवाधारी मुख्यमंत्री पर अपनी भड़ास निकालने जरूर आएँगे... बिलकुल वैसा ही हुआ. ताजमहल को भारत की कला विरासत एवं वास्तु परंपरा सिद्ध करने के चक्कर में इन बुद्धिजीवियों ने औरंगज़ेब को दयालु तथा टीपू सुलतान को कलाप्रेमी साबित करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी. लेकिन वास्तविकता वही है, जो योगी आदित्यनाथ ने कही, कि ताजमहल को भारत की कला विरासत अथवा वास्तु परम्परा कतई नहीं माना जा सकता.
इसका कारण यह है कि “अरबी स्टाईल” की वास्तुकृति अर्थात ताजमहल बनने से कई-कई-कई वर्षों पूर्व भारत की संस्कृति, समृद्धि एवं हिन्दू वास्तुकला को प्रदर्शित करने वाले सैकड़ों विराट, भव्य, कलात्मक एवं अदभुत किस्म के मंदिर भारत में बनाए जा चुके थे. हम यहाँ केवल तीन संक्षिप्त उदाहरण लेंगे और सिद्ध करेंगे कि “बाहरी आक्रान्ताओं” द्वारा अरबी संस्कृति को थोपने का प्रयास करते हुए तथा 14वें बच्चे को जन्म देते समय मरी हुई मुमताज़ महल के “कथित प्रेम” में बनी हुई भुतहा, वीरान तथा दो लाशों को दफनाई हुई कथित कलाकृति(??), जिसे बनाने के बाद कारीगरों के हाथ काट दिए गए हों... भारत की सांस्कृतिक धरोहर कतई नहीं हो सकती. इस लेख में हम वास्तुकला के दो-तीन उत्कृष्ट उदाहरण देखेंगे, जो कि ताजमहल बनने से सैकड़ों वर्ष पहले ही भारत में बनाए जा चुके थे. इन मंदिरों की वास्तुकला और आश्चर्य भरे निर्माण कार्य के बारे में पढ़ने के बाद इनके सामने ताजमहल की औकात कुछ भी नहीं रह जाती.
(यह लेख आपको desicnn.com के सौजन्य से प्राप्त हो रहा है, जारी रखें...)
सबसे पहले हम शुरुआत करते हैं महाराष्ट्र स्थित एलोरा गुफाओं के भीतर बने विशालकाय कैलाश मंदिर की. इस मंदिर का निर्माण ईसा पूर्व 773 का माना जाता है, यानी आज से लगभग 2800 वर्ष पूर्व... यानी इस्लाम के जन्म लेने से भी 1400 वर्ष पूर्व. उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र की अजंता-एलोरा गुफाएँ भी विश्वप्रसिद्ध हैं एवं यूनेस्को की विश्व धरोहर हैं. यहाँ पर कुल 32 गुफाएँ हैं, जिनमें कलाकारों ने पत्थरों को काटकर अपनी शानदार कलाकारी का नमूना पेश किया है. यहाँ के भित्तिचित्र आज भी वैज्ञानिकों को आकर्षित, सम्मोहित और चमत्कृत करते हैं. इन्हीं गुफाओं के बीच स्थित है कैलाशनाथ मंदिर. इस मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूट राजा कृष्ण प्रथम द्वारा करवाया गया. स्वाभाविक है कि इतने बड़े मंदिर का निर्माण एक राजा के जीवनकाल में तो नहीं हुआ होगा, इसलिए जब इतिहास एवं पुरातत्व विशेषज्ञ हर्मन गोएत्ज़ (1952) ने अध्ययन किया तो पाया कि राष्ट्रकूट राजा कृष्ण के बाद उसके भतीजे दंतीदुर्ग ने इसका निर्माण जारी रखा. एक और इतिहासकार एमके धवलीकर (1982) के अनुसार इस मंदिर का काफी सारा निर्माण कृष्णा प्रथम के शासनकाल में हो चुका था. परन्तु विशाल चट्टान को काटकर बनाए जाने वाले इस मंदिर का नंदी मंडप इत्यादि कई कार्य आगे के राजाओं ने संपन्न किए. धवलीकर के अनुसार जब इस प्रकार एक मंदिर का निर्माण वर्षों तक जारी रहता है, तो ज़ाहिर है कि इसे बनाने वाले वास्तुकारों एवं ज्योतिषियों के पास इस मंदिर के निर्माण का कोई ठोस नक्शा, ब्लूप्रिंट अथवा विशाल ड्राइंग अवश्य होगी, जिसे निरंतरता के साथ पालन किया जाता रहा. एक अनुमान के अनुसार एक मजदूर दिन भर में चार क्यूबिक फुट पत्थर ही काट सकता है. इस हिसाब से यदि उन दिनों 250 मजदूर भी इस मंदिर निर्माण में लगे हों तब भी उन्होंने मंदिर के सामने स्थित हाथी की विशाल प्रतिमा बनाने में ही पाँच वर्ष से अधिक का समय लिया होगा. दुनिया भर के कारीगर एवं वास्तुकला के जाने-माने नाम इस मंदिर को देखकर दाँतों तले उंगली दबाते हैं, क्योंकि इस मंदिर का निर्माण परम्परागत रूप से नीचे से ऊपर की तरफ नहीं, बल्कि एक विशाल चट्टान को ऊपर से नीचे की तरफ काटकर किया गया है.
इस मंदिर के निर्माण का एक रोचक तथ्य कृष्ण याज्ञवल्क्य लिखित “कथा-कल्पतरु” में पाया जाता है. इसके अनुसार राजा कृष्ण प्रथम एक बार गंभीर रूप से बीमार पड़े, तब उनकी रानी ने ईश्वर से प्रार्थना स्वरूप वचन दिया कि यदि राजा स्वस्थ हो जाते हैं, तो वह भगवान् शंकर का एक विशाल मंदिर बनवाएँगे और जब तक इस मंदिर का शिखर नहीं दिखाई देता, तब तक वह निराहार रहेगी. कुछ समय बाद राजा कृष्णा स्वस्थ हो गए तो उन्होंने तत्काल एक विशाल मंदिर निर्माण का आदेश दिया, और कहा कि एक माह के भीतर इसे बनाओ ताकि रानी को जल्दी से जल्दी मंदिर का शिखर देखने को मिले और उन्हें अधिक दिनों तक निराहार न रहना पड़े. कई वास्तुकार आए और चले गए, परन्तु सभी ने कहा कि इतनी जल्दी किसी भी मंदिर का निर्माण संभव नहीं है. एक वास्तुकार जिसका नाम कोकासा था, उसने कहा कि वह मंदिर का निर्माण उल्टी दिशा से आरम्भ करेगा अर्थात शिखर पहले. इससे रानी का वचन भी नहीं टूटेगा. इस प्रकार कारीगरों ने मात्र एक सप्ताह के अन्दर एलोरा के इस कैलाश मंदिर का शिखर निर्माण करके दिखा दिया और रानी ने अपना उपवास तोड़ा. इसके बाद अगले कई वर्षों तक नीचे-नीचे और नीचे की तरफ उस चट्टान को काटते हुए उन अदभुत कलाकारों ने इस शानदार मंदिर का निर्माण पूरा किया. कहने का तात्पर्य यह है कि जिस समय बाकी दुनिया में शिक्षा का विस्तार ही नहीं हुआ था, जब इस्लाम का जन्म भी नहीं हुआ था... उस समय भारत के वास्तुकारों ने वर्षों तक एक निश्चित नक़्शे के आधार पर उल्टी दिशा से मंदिर निर्माण कर लिया था.
वास्तुकला और भारतीय विरासत का दूसरा उदाहरण है तंजावूर (तमिलनाडु) का बृहदीश्वर मंदिर. इस मंदिर के बारे में पूर्ण विस्तार के साथ इसी वेबसाईट पर पहले भी एक लेख आ चुका है, परन्तु फिर भी संक्षेप में इस मंदिर से सम्बंधित भारतीय वास्तुकला के कुछ खास बिंदु नोट किए जाने लायक हैं. तंजावूर शहर में स्थित बृहदीश्वर मंदिर भारत का सबसे बड़ा मंदिर कहा जा सकता है. यह मंदिर “तंजावूर प्रिय कोविल” के नाम से भी प्रसिद्ध है. सन 1010 में अर्थात आज से एक हजार वर्ष पूर्व राजराजा चोल ने इस विशाल शिव मंदिर का निर्माण करवाया था (यानी इस मंदिर का निर्माण उस समय हो चुका था, जिस समय ताजमहल बनाने वालों के अरबी पुरखे, रेगिस्तान में ऊँटों और खजूरों पर अपना जीवन व्यतीत करते थे). इस मंदिर की प्रमुख वास्तु (अर्थात गर्भगृह के ऊपर) की ऊँचाई 216 फुट है (यानी पीसा की मीनार से कई फुट ऊँचा). यह मंदिर न सिर्फ वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है, बल्कि तत्कालीन तमिल संस्कृति की समृद्ध परंपरा को भी प्रदर्शित करता है. कावेरी नदी के तट पर स्थित यह मंदिर पूरी तरह से ग्रेनाईट की बड़ी-बड़ी चट्टानों से निर्मित है. ये चट्टानें और भारी पत्थर पचास किमी दूर पहाड़ी से लाए गए थे. इसकी अदभुत वास्तुकला एवं मूर्तिकला को देखते हुए UNESCO ने इसे “विश्व धरोहर” के रूप में चिन्हित किया हुआ है. अपने समय के तत्कालीन सभी मंदिरों के मुकाबले चालीस गुना विशाल था. इसके 216 फुट ऊँचे विराट और भव्य मुख्य इमारत को इसके आकार के कारण “दक्षिण मेरु” भी कहा जाता है. 216 फुट ऊँचे इस शिखर के निर्माण में किसी भी जुड़ाई मटेरियल का इस्तेमाल नहीं हुआ है. इतना ऊँचा मंदिर सिर्फ पत्थरों को आपस में “इंटर-लॉकिंग” पद्धति से जोड़कर किया गया है. इसे सहारा देने के लिए इसमें बीच में कोई भी स्तंभ नहीं है, अर्थात यह पूरा शिखर अंदर से खोखला है. भगवान शिव के समक्ष सदैव स्थापित होने वाली “नंदी” की मूर्ति 16 फुट लंबी और 13 फुट ऊँची है तथा एक ही विशाल पत्थर से निर्मित है. अष्टकोण आकार का मुख्य शिखर एक ही विशाल ग्रेनाईट पत्थर से बनाया गया है. इस शिखर और मंदिर की दीवारों पर चारों तरफ विभिन्न नक्काशी और कलाकृतियां उकेरी गई हैं. गर्भगृह दो मंजिला है तथा शिवलिंग की ऊँचाई तीन मीटर है. आगे आने वाले चोल राजाओं ने सुरक्षा की दृष्टि से 270 मीटर लंबी 130 चौड़ी बाहरी दीवार का भी निर्माण करवाया. इस मंदिर के वास्तुशिल्पी कुंजारा मल्लन माने जाते हैं. इन्होंने प्राचीन वास्तुशास्त्र एवं आगमशास्त्र का उपयोग करते हुए इस मंदिर की रचना में (एक सही तीन बटे आठ या 1-3/8 अर्थात, एक अंगुल) फार्मूले का उपयोग किया. इसके अनुसार इस मात्रा के चौबीस यूनिट का माप 33 इंच होता है, जिसे उस समय "हस्त", "मुज़म" अथवा "किश्कु" कहा जाता था. वास्तुकला की इसी माप यूनिट का उल्लेख चार से छह हजार वर्ष पहले के मंदिरों एवं सिंधु घाटी सभ्यता के निर्माण कार्यों में भी पाया गया है. इतने विराट और अदभुत मंदिर को उत्तर भारत के लोग जानते भी नहीं हैं, क्योंकि उन्हें पाठ्यक्रमों में केवल ताजमहल और पीसा की मीनार के बारे में पढ़ाया गया है, भारत की “असली विरासत” के बारे में नहीं.
(यह लेख आपको desicnn.com के सौजन्य से प्राप्त हो रहा है, जारी रखें...)
तीसरा उदाहरण है कर्नाटक में स्थित ऐतिहासिक एवं पौराणिक शहर हम्पी में बने प्रसिद्द मंदिरों का. इनके बारे में भी उत्तर भारत के अधिकाँश लोगों को जानकारी नहीं है. मंदिरों की बात छोड़िये, “हम्पी” शहर का नाम ही बहुत से लोगों ने नहीं सुना होगा. ऐसा होता है नकली इतिहासकारों द्वारा किया गया वामपंथी और पश्चिमी ब्रेनवाश. बहरहाल, बंगलौर से 350 किमी दूर स्थित हम्पी शहर एक समय पर चालुक्य वंश की राजधानी था. इस नगर में और इसके आसपास मंदिरों की श्रृंखला के ऐसी-ऐसी नायाब कलात्मक विरासतें हैं, जिन्हें देखकर हमें अपने ऋषियों और तत्कालीन वास्तुकारों पर गर्व महसूस होता है, आश्चर्य भी होता है. हम्पी के मंदिरों की कुछ छवियाँ यहाँ पेश करता हूँ, स्वयं ही देखिये और अनुमान लगाईये कि ताजमहल बनने से 300 वर्ष पहले यह अदभुत कलाकारी, वास्तुकारी, नक्षा निर्माण इत्यादि अपने पूर्ण यौवनकाल में चल रहा था.
विजयनगरम पद्धति से बना हुआ बालकृष्ण मंदिर का सभा मंडप....
हम्पी स्थित राजा होयसाला पद्धति में बना हुआ विठ्ठल मंदिर का खुला मंडप
विठ्ठल मंदिर के अन्दर का एक दृश्य, जिसमें ग्रेनाईट पत्थरों पर उकेरी गई शानदार कलाकृति दिख रही है.
विरूपाक्ष मंदिर का प्रसिद्द गोपुरम
आंधप्रदेश स्थित श्रीसैलम का मल्लिकार्जुन मंदिर.
दर्जनों स्तंभों वाला लेपाक्षी मंदिर (अनंतपुर, आन्धप्रदेश)
हम्पी स्थित रघुनाथ मंदिर, विट्ठल मंदिर परिसर
हम्पी में ही स्थित कृष्ण मंदिर में पानी की पुष्करिणी
हम्पी में ही स्थित कृष्ण मंदिर में पानी की पुष्करिणी
सैकड़ों सीढ़ियों से युक्त हम्पी स्थित एक और जल पुष्करिणी
विजयनगरम साम्राज्य की इस वास्तुकला और जबरदस्त कारीगरी को देखकर कई विदेशी समीक्षक, लेखक भौंचक्के थे. भारत की इस प्राचीन कलाकारी और वास्तु को देखकर कई विदेशियों ने अपने अनुभवों, अपनी पुस्तकों में जमकर तारीफ़ की है. 1420 में भारत भ्रमण पर इटली से आए निकोलो कोंटी विजयनगरम के बारे में लिखते हैं, “एक ऐसा नगर देखा, जो इस पृथ्वी पर न कभी देखा, न सुना. पूरा शहर बगीचों और पत्थर की मेहराबों से बेहद सुंदर दिखाई देता है. इसी प्रकार 1522 में पुर्तगाल से भारत आए मार्क पेस लिखते हैं, “विजयनगरम तो रोम से भी बड़ा और सुन्दर दिखाई देता है... यह शहर इतना धनी और सुन्दर है कि दुनिया में शायद ही कहीं ऐसा कोई शहर होगा... हिन्दू संस्कृति के विराट मंदिर, उनकी विशाल दीवारें तथा उन पर की गई पत्थर की नक्काशी बेजोड़ है...”.
कहने का तात्पर्य यह है कि ताजमहल बनने से कई सौ वर्षों पूर्व भारत की संस्कृति, समृद्धि, कला, वास्तु, कारीगरी बहुत उच्च स्तर पर थी, इसलिये खामख्वाह ताजमहल जैसी क्रूरतापूर्ण कथित कलाकारी को महान एवं भारत की विरासत कहने का ढोल पीटना कतई शोभा नहीं देता. इस प्रकार के झूठे हथकण्डों से ही भारत का गौरवशाली इतिहास बदला गया है, जिसे सुधारने की सख्त आवश्यकता है.!
MUST READ:
- THE RETURN OF CHRIST CONSCIOUSNESS
- 3 Signs Your Soul Has Reincarnated Into This Life
- ब्रह्मांड_का_रहस्य - Mystry of Universe
- जाति_प्रथा_की_सच्चाई – The reality of casteism in india
- विश्व का पहला विश्वविद्यालय # तक्षशिला_विश्वविद्यालय (World's first International University)
- लालच बुरी बला.... AN INSPIRATIONAL STORY
- एक भरोसा.....THE FAITH IN HINDI
- SUCCESSFUL SPEAKER के 7 गुण
- जिँदगी की प्राथमिकताएँ.. PRIORITIES OF LIFE IN HINDI
- सफलता के सोपान- स्वामी विवेकानन्द.....Ladder of success - SWAMI VIVEKANAND - Part II
- सफलता के सोपान- स्वामी विवेकानन्द....Ladder of success - SWAMI VIVEKANAND - Part I
- हार न मानिये आगे बढ़िये और जीतिये..DONT GET DEFEATED... MOVE FORWARD & WIN
- आपकी सबसे बड़ी शक्ति- आत्मनियंत्रण SELF CONTROL - THE BIGGEST STRENGTH IN HINDI
No comments:
Post a Comment