सफलता के पाँच चरणोँ मेँ स्वामी विवेकानन्द जी के अनमोल विचारोँ का संग्रह
बल और शक्ति
- तुम जो कुछ सोचोगे, तुम वही हो जाओगे, यदि तुम अपने को दुर्बल समझोगे, तो तुम दुर्बल हो जाओगे। वीर्यवान सोचोगे तो वीर्यवान बन जाओगे। (स्वामी विवेकानंद जी)
- तुम जो कुछ बल या सहायता चाहो, सब तुम्हारे ही भीतर विद्यमान है। अतएव इस ज्ञानरूप शक्ति के सहारे तुम बल प्राप्त करो और अपने हाथोँ अपना भविष्य गढ़ डालो। (स्वामी विवेकानंद जी)
- यह एक बड़ा सत्य है कि बल ही जीवन है और दुर्बलता ही मरण। बल ही अनंत सुख है, अमर और शाश्वत जीवन है और दुर्बलता ही मौत। (स्वामी विवेकानंद जी)
- “उठो, जागो और सोओ मत। सारे अभाव और दु:ख नष्ट करनेँ की शक्ति तुम्ही मेँ है, इस बात पर विश्वास करने से ही वह शक्ति जाग उठेगी।” (स्वामी विवेकानंद जी)
- किसी बात से मत डरो। तुम अद्भुत कार्य करोगे। जिस क्षण तुम डर जाओगे, उसी क्षण तुम बिल्कुल शक्तिहीन हो जाओगे। संसार मेँ दु:ख का मुख्य कारण भय ही है, यही सबसे बड़ा कुसंस्कार है, यह भय हमारे दु:खोँ का कारण है, और यह निर्भीकता है जिससे क्षण भर मेँ स्वर्ग प्राप्त होता है। अतएव, उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। (स्वामी विवेकानंद जी)
- अपनेँ दोष के लिये तुम किसी को उत्तरदायी न समझो, अपने ही पैरोँ पर खड़े होने का प्रयत्न करो, सब कामोँ के लिये अपनेँ को ही उत्तरदायी समझो। कहो कि जिन कष्टोँ को हम अभी झेल रहे हैँ, वे हमारे ही किये हुए कर्मोँ के फल हैँ। यदि यह मान लिया जाय, तो यह भी प्रमाणित हो जाता है कि वे फिर हमारे द्वारा नष्ट भी किये जा सकते हैँ। (स्वामी विवेकानंद जी)
- सीखनेँ का पहला पाठ यह है : निश्चय कर लो कि बाहरी किसी भी वस्तु पर तुम दोष न मढ़ोगे, उसे अभिशाप न दोगे। इसके विपरीत, मनुष्य बनोँ, उठ खड़े हो जाओ और दोष स्वयं अपने ऊपर मढ़ो। तुम अनुभव करोगे कि यह सर्वदा सत्य है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- मेरे युवक बन्धुओँ, तुम बलवान बनोँ- यह तुम्हारे लिए मेरा उपदेश है। गीता-पाठ करने की अपेक्षा तुम्हेँ फुटबाल खेलने से स्वर्ग-सुख अधिक सुलभ होगा। मैनेँ अत्यंत साहसपूर्वक ये बातेँ कही हैँ, और इनको कहना अत्यावश्यक है, कारण मैँ तुमको प्यार करता हूँ। मैँ जानता हूँ कि कंकड़ कहाँ चुभता है। मैनेँ कुछ अनुभव प्राप्त किया है। बलवान शरीर से अथवा मजबूत पुट्टोँ से तुम गीता को अधिक समझ सकोगे। (स्वामी विवेकानंद जी)
- हर बात को रहस्यमय बनाना और कुसंस्कार- ये सदा दुर्बलता के ही चिन्ह होते हैँ। ये अवनति और मौत के ही चिन्ह हैँ। इसलिए उनसे बचे रहो, बलवान बनो और अपनेँ पैरोँ पर खड़े हो जाओ। (स्वामी विवेकानंद जी)
- बच्चोँ, याद रखना कि कायर तथा दुर्बल व्यक्ति ही पापाचरण करते हैँ एवं झूठ बोलते हैँ। साहसी तथा शक्तिशाली व्यक्ति सदा ही नीतिपरायण होते हैँ। नीतिपरायण, साहसी तथा सहानुभुतिसम्पन्न बनने का प्रयास करो। (स्वामी विवेकानंद जी)
- निभीँक बनो, तथ्योँ का सामना तथ्योँ की भाँति करो। अशुभ के भय से विश्व मेँ इधर-उधर न भागो। अशुभ अशुभ है। उससे क्या? (स्वामी विवेकानंद जी)
सच्चा सुख
- सुख और दु:ख एक ही सिक्के के चित और पट हैँ। जिसे सुख चाहिये उसे दु:ख भी लेना होगा। हम लोग मुर्खतावश सोचते हैँ कि बिना कोई दुख के हमेँ केवल सुख ही सुख मिल जायेगा, और यह बात हममेँ ऐसी समा गयी है कि इन्द्रियोँ पर हम अधिकार ही नहीँ कर पाते। (स्वामी विवेकानंद जी)
- समस्त सांसारिक दुखोँ का कारण है, इन्द्रियोँ की दासता। इन्द्रियपरायण जीवन से अतीत होने की हमारी असमर्थता शारीरिक भागोँ के लिये उद्यम ही संसार मेँ सभी आतंकोँ तथा दु:खोँ का कारण है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- पराधीनता दैन्य है। स्वाधीनता ही सुख है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- सुख आदमी के सामनेँ आता है तो दुख का मुकुट पहनकर। जो उसका स्वागत करता है, उसे दुख का भी स्वागत करना चाहिए। (स्वामी विवेकानंद जी)
- अनियंत्रितऔर अनिर्दिष्ट मन हमेँ सदैव उत्तरोत्तर नीचे की ओर घसीटता रहेगा- हमेँ चीँथ डालेगा, हमेँ मार डालेगा; और नियंत्रित तथा निदिष्ट मन हमारी रक्षा करेगा, हमेँ मुक्त करेगा। इसलिये वह अवश्य नियंत्रित होना चाहिये और मनोविज्ञान सिखाता है कि इसे कैसे करना चाहिए. (स्वामी विवेकानंद जी)
- सहनशीलता और क्षमाशीलता अपनानी पड़ेगी तथा जीवन-यात्रा मेँ मिल जुल कर चलना पड़ेगा, तभी उनका जीवन अत्यंत सुखपुर्ण होगा। (स्वामी विवेकानंद जी)
प्रेम और नि:स्वार्थता
1.आवश्यकता है केवल प्रेम, निश्छलता और धैर्य की। जीवन का अर्थ ही व्रिध्दि अर्थात विस्तार यानी प्रेम है। इसलिये प्रेम ही जीवन है, यही जीवन का एकमात्र नियम है, और स्वार्थपरता ही म्रित्यु है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- जिस मनुष्य का मनुष्य के लिये जी नहीँ दुखता वह अपने को मनुष्य कैसे कहता है? (स्वामी विवेकानंद जी)
- प्रेम कभी निष्फल नहीँ होता मेरे बच्चे, कल हो या परसोँ या युगोँ के बाद, पर सत्य की जय अवश्य होगी। प्रेम ही मैदान जीतेगा। क्या तुम अपने भाई- मनुष्य जाति- को प्यार करते हो? ईश्वर को कहाँ ढूँढ़ने चले हो- ये सब गरीब, दुखी, दुर्बल मनुष्य क्या ईश्वर नहीँ हैँ? इन्हीँ की पुजा क्योँ नहीँ करते? गंगा-तट पर कुआँ खोदने क्योँ जाते हो? प्रेम की असाध्य-साधिनी शक्ति पर विश्वास करो। (स्वामी विवेकानंद जी)
- यदि कोई मनुष्य स्वार्थी है, तो चाहे उसने संसार के सब मंदिरोँ के दर्शन क्योँ न किये होँ, सारे तीर्थ क्योँ न गया हो और रंग भभूत रमाकर अपनी शक्ल चीता जैसी क्योँ न बना ली हो, शिव से वह बहूत दूर है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- सर्वत्र नि:स्वार्थता की मात्रा पर ही सफलता की मात्रा निर्भर रहती है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- नि:स्वार्थता अधिक फलदायी होती है केवल लोगोँ मेँ इसका अभ्यास करने का धैर्य नहीँ होता। स्वास्थ्य की नजर से भी यह अधिक लाभदायक है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- सदा विस्तार करना ही जीवन है और संकोच म्रित्यु। जो अपना ही स्वार्थ देखता है, आरामतलब है, आलसी है उसके लिये नरक मेँ भी जगह नहीँ है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- क्या तुम्हारे पास प्रेम है? तब तो तुम सर्वशक्तिमान हो। क्या तुम सम्पूर्णत: निस्वार्थ हो? यदि हो! तो फिर तुम्हेँ कौन रोक सकता है? (स्वामी विवेकानंद जी)
- डरो मत मेरे बच्चोँ अनंत नक्षत्रखचित आकाश की ओर भयभीत नजरोँ से ऐसे मत ताको, जैसे कि वह हमेँ कुचल ही डालेगा। धीरज धरो। देखोगे कि कुछ ही घण्टोँ मेँ वह सबका सब तुम्हारे पैरोँ तले आ गया है। धीरज धरो, न धन से काम होता है; न नाम से, न यश काम आता है, न विद्या प्रेम ही से सब कुछ होता है। सचमुच जानवर जैसी हो जाती है। (स्वामी विवेकानंद जी)
स्वास्थ्य
- नियमित व्यायाम के बिना शरीर कभी ठीक नहीँ रहता है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- रोज सबेरे-शाम टहलो, शारीरिक परिश्रम करो- शरीर और मन साथ उन्नत होने चाहिये। (स्वामी विवेकानंद जी)
- शारीरिक दुर्बलता कम से कम हमारे एक तिहाई दु:खोँ का कारण है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- अशुध्द जल और अशुध्द भोजन रोग का घर है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- पहला लाभ है स्वास्थ्य। हममेँ से निन्यानबे प्रतिशत लोग ठीक से साँस भी नहीँ ले पाते हैँ। हम अपनेँ फेफड़ोँ को फुलाते नहीँ हैँ।….. नियमित श्वास लेने से शरीर शुध्द हो जाता है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- जीवात्मा की वासभुमि इस शरीर से ही कर्म की साधना होती है। जो इसे नरककुण्ड बना देते हैँ, वे अपराधी हैँ और जो इस शरीर की रक्षा मेँ प्रयत्नशील नहीँ होते, वे भी दोषी हैँ। (स्वामी विवेकानंद जी)
आहार
- हम जिन दुखोँ को भोग रहे हैँ, उनका अधिकाँश हमारे खाये हूए आहार से ही प्रसुत होता है। अधिक मात्रा मेँ तथा दुष्पाच्य भोजन के उपरान्त हम देखते हैँ कि मन को वश मेँ रखना कितना कठिन हो जाता है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- हमारे देश मेँ जिनके पास दो पैसा है, वे अपने बाल बच्चोँ को पुरी-मिठाई खिलायेँगे ही! भात- रोटी खिलाना उनके लिये अपमान है! इससे बाल बच्चे आलसी, निर्बुध्दि हो जाते हैँ तथा उनका पेट निकल आता है और शकल सचमुच जानवर जैसी हो जाती है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- प्रथम पुष्टिकर उत्तम भोजन से शरीर बलिष्ट करना होगा, तभी तो मन का बल बढ़ेगा। मन तो शरीर का ही सूक्ष्म अंश है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- भोजन ऐसा रहे कि परिणाम मेँ कम, पर पुष्टिकारक हो। पेट को ढेर सारे भात से ठूँस देना ही आलस्य का मूल है। (स्वामी विवेकानंद जी)
- अगर स्वाद की इन्द्रिय को ढील दी, तो सभी इन्द्रियाँ बेलगाम दौड़ेँगी। (स्वामी विवेकानंद जी)
- बहूत चर्बी या तेल से पका हूआ भोजन अच्छा नहीँ। पूरी से रोटी अच्छी होती है। पूरी रोगियोँ का खाना है। ताजा शाक अधिक मात्रा मेँ खाना चाहिये और मिठाई कम। (स्वामी विवेकानंद जी)
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